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सफ़र / अपूर्व भूयाँ
Kavita Kosh से
आधी रोशनी, आधी तमस की प्रहर में
सुन रहा हूँ अविराम वह शब्द
झक-झक, झक-झक
चल रही है रेल
एक परिचय के बाद गुमनाम हो जाती है
ह्रदय,चेहरा और आस-पास की तस्वीर
अचानक बर्फ़ गिरती है
आग की सुरंग में घुस जाता हूँ
अचानक ख़ुद को धुँध लेता हूँ
फिर खो जाता हूँ
फिर से वही तलाश
ख़ुद की तलाश में
मिलता हूँ आपसे
फिर खो जाने से पहले
आइए थोड़ी देर बैठे और
एक एक प्याला गरम काफ़ी में हूँठ लगाकर
अपने आप से पूछें
क्या हम ढूँढ लेते हैं ख़ुद को
ज़िंदगी की ये सफ़र में !