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सबका प्यारा घर / दिविक रमेश
Kavita Kosh से
सदा यही तो कहती हो माँ
घर यह सिर्फ हमारा अपना,
लेकिन माँ कैसे मैं मानूं?
घर तो यह कितनों का अपना!
देखो तो कैसे ये चूहे
खेल रहे हैं पकड़म-पकड़ी
कैसे मच्छर टहल रहे हैं
कैसे मस्त पड़ी है मकड़ी!
और छिपकली को देखो
चलती है जो गश्त लगाती,
अरे कतारें बांधे-बांधे
चींटी-चींटी दौड़ी जाती।
और उधर आंगन में देखो
पंछी कैसे झपत रहे हैं,
बिलकुल दीदी ओर मुझ जैसे
किसी बात पर झगड़ रह हैं।
इसीलिए तो कहता हूँ माँ
घर न समझो सिर्फ हमारा।
सदा-सदा से जो भी रहता
सबका ही है घर यह प्यारा।