सबको सावन का महीना भा गया / ऋषिपाल धीमान ऋषि

सबको सावन का महीना भा गया
सूखते पेड़ों को जीना आ गया।

फ़स्ल गेहूँ की पकी जब खेत में
सब किसानों ओर नशा सा छा गया।

रंग मस्ती के उसे भी भा गये
जिसको अब तक पारसा समझा गया।

मयकशी का जो विरोधी था बहुत
मैकदे में आज वो देखा गया।

ले उड़ी चुनरी पवन मदमस्त, तो
लाज का आंसू नयन छलका गया।

एक गोरी का नशीला तन-बदन
संयमी मन को मेरे बहका गया।

यह जवां फूलों का मंज़र खुशनुमा
बस्तिए-दिल को मर्ज महका गया।

चाहती हज वो भिगोऊँ मैं उसे
मौन उसका कान में बतला गया।

रंग होली के तो रक्खे रह गये
और कोई प्यार से नहला गया।

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