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सबक / पूनम मनु

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आज मैं बुनुंगी धरती
उतने ही साहस से
जितने साहस से सहे तुमने दर्द
आज मैं बुनुंगी आकाश
उसी ऊन से
जिस ऊन से बुने तुमने सपने
आज मैं बुनुंगी
पहाड़, नदिया, समंदर और ये हवा
उसी फुर्सत से जिस फुर्सत से खेले तुमने
बचपन में गुड्डे गुड़ियाओं वाले खेल
कुश्ती, कबड्डी, गुल्ली-डंडा खेलने की
हसरत मन में लिए
आज मैं रंगूंगी
पेड़, पत्ते और कोंपलें उसी हरेपन से
जिसको मन में दबाए
सूखे काट दिए तुमने
अपने हरियाये हुए दिन
आज मैं बुनुंगी चाँद-सितारे
उतनी ही शिद्दत से
जितनी हसरत से पुकारा तुमने उन्हें
आज मैं गढ़ूँगी
मंदिर की उस प्रतिमा को जीवित ही
जो शक्ति का प्रतीक है
पर तुम्हारी रोज़ टूटती
हिम्मत और आशा पर मुसकुराती है
आज मैं बुनुंगी पंख
उसी तांत से
जिसमें बांध तुम्हें पंगु बना दिया गया
और जिसमें कसमसाते कटी तुम्हारी पूरी उम्र
मैं सब बुन लूँगी माँ ...
सब ...
विश्वास रखो