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सबने देखा / अरविंद कुमार
Kavita Kosh से
पेड़ जब शीश नवाते हैं
पात जब गौरव पाते हैं,
हवा सिंहासन पर चढ़कर
सवारी लेकर आती है।
हवा को सबने देखा है।
पतंग जब ऊपर चढ़ती है
ठुमकती है, बल खाती है,
हवा तब घुटनों पर झुककर
गीत आशा का गाती है।
हवा को सबने देखा है।
तितलियाँ चंचल उड़ती हैं
गुलाबों पर मँडराती हैं,
हवा तब वासंती होकर
गीत यौवन का गाती है।
हवा को सबने देखा है।
शाख कलियों से लदती है
और जब हौले हिलती है,
हवा तब खिलती-मुसकाती
सभी से मिलने आती है!
हवा को सबने देखा है।
-साभार: नंदन, सितंबर, 1999, 30