सबसे छिपकर रोते होंगे / विशाल समर्पित
अपनों से ही घातें पाकर, अपनो की ही देख दुर्दशा
बैठे-बैठे नदी किनारे, सबसे छिपकर रोते होंगे
इड़ा,पिंगला और सुषुम्ना, चिल्लाते हैं नाड़ी-नाड़ी
भोग भोगते मैंने देखे, राजयोग के निपुण खिलाड़ी
मुझको पग-पग पर मिल जाते, पथिकों को भटकाने वाले
जाने कौन लोक मे होंगे, दुर्दिन मे समझाने वाले
होंगे भी या नहीं भी होंगे, ऐसा भी कुछ ज्ञात नहीं है
लेकिन मेरा मन कहता है, निश्चित ही वे होते
बैठे-बैठे नदी किनारे, सबसे छिपकर रोते होंगे
सच बतलाना इतना कड़वा, आख़िर कैसे कह लेते हो
अपनों की यादें बिसराकर, आख़िर कैसे रह लेते हो
जाने कैसा समय आ गया, तोड रहे सब रिश्ते-नाते
मन के कहने पर चलते हैं, मन को साध नहीं पाते
अधरों पर मुस्कान बिखेरे, जगभर को समझाने वाले
मुझे पता अक्सर रातों में , रोते-रोते सोते होंगे
बैठे-बैठे नदी किनारे, सबसे छिपकर रोते होंगे
सबकी नज़रों मे होते हैं, नज़र चुराकर बचने वाले
अनुबंधों को स्वयं तोड़ते, अनुबंधों को रचने वाले
हो सकता है विस्तृत नभ मे, बनकर ध्रुव-तारा चमकें वो
सपने सच करने की ख़ातिर, संबंधो को रौंद रहे जो
दुनियाभर की दौलत पाकर, रीते-रीते जीते होंगे
देकर सपनों को महत्व जो संबंधो को खोते होंगे
बैठे-बैठे नदी किनारे, सबसे छिपकर रोते होंगे