सबा बनाते हैं ग़ुंचा-दहन बनाते हैं
तुम्हारे वास्ते क्या क्या सुख़न बनाते हैं
सिनान ओ तीर की लज़्ज़त लहू में रम कर है
हम अपने आप को किस का हरन बनाते हैं
ये धज खिलाती है क्या गुल ज़रा पता तो चले
के ख़ाक-ए-पा को तेरी पैरहन बनाते हैं
वो गुल-अज़ार इधर से आएगा सौ दाग़ों से
हम अपने सीने को रश्क-ए-चमन बनाते हैं
शहीद-ए-नाज़ ग़ज़ब के हुनर-वराँ निकले
लहू की छींटों से अपना कफ़न बनाते हैं
तुम्हारी ज़ात हवाला है सुर्ख़-रूई का
तुम्हारे ज़िक्र को सब शर्त-ए-फ़न बनाते हैं