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सब कुछ बिखर गया है सँवारा नहीं गया / विनय मिश्र
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सब कुछ बिखर गया है सँवारा नहीं गया
अपना ही बोझ सिर से उतारा नहीं गया
उस घर से कितनी यादें जुड़ी हैं मैं क्या कहूँ
जिस घर में लौटकर मैं दुबारा नहीं गया
कुछ भीगे पल रहे हैं हमेशा हमारे साथ
मौसम हमारी आंँखों का खारा नहीं गया
माना बहुत है सस्ता ये सौदा जमीर का
जीते जी मुझसे मौत से हारा नहीं गया
गर्माहटें नहीं तो भी दिल के अलाव से
बुझती उदासियों का सहारा नहीं गया
अपने दुखों की राख से जनमा हूंँ बार-बार
लपटों के हाथ मैं कभी मारा नहीं गया
होने लगी जो भोर तो गजलों ने दी चहक
हालात से मैं करके किनारा नहीं गया