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सब कुछ है माया / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय

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जीवन-जन में उलझा मन
तमाम कोनों में विभाजित
रहते हुए स्वयं में गुमशुम
अपने समय से जूझते
स्वयं में होकर पराजित
पूरे मैदान की निगरानी करते
समतल की चाह में
कब हो गया स्वार्थी
आज तक न जान सका

कहते हैं खाली हाथ आया है
जाएगा भी खाली हाथ
कर सके जो जितना
इसी एक जीवन में कर ले परमार्थ

कहाँ से शुरू करूँ
कहाँ से पकड़ें आदत ऐसा करने की
कि लोग अंतिम दिनों के अंतिम समय में
हमें कहें परमार्थी

आज तक न समझ सका
समझ बस यही आया
अब तक के प्रयास में
इस समय संसार में
जो कुछ भी यथार्थ है
परमार्थ नहीं स्वार्थ है

कुछ नहीं ईश्वरीय
जिसका हम गुणगान करें
सब कुछ है माया
सबको है भरमाया