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सब पाखण्ड ही / चंद्र रेखा ढडवाल
Kavita Kosh से
मेरे हिस्से का दु:ख
तुम्हारी तनी हुई
मुठ्ठियों से झरा
या फिसला
मेरे कन्धे सहलाती
तुम्हारी हथेलियों से
क्या फ़र्क पड़ता है
***
मेरे झेलने की पीड़ा को
रत्ती भर बढ़ाता-घटाता नहीं
तुन्हारे चेहरे या ज़बान का
खुरदरा या लिजलिजा
कोई पाखंड