भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सब लोग लिये संग-ए-मलामत निकल आये / फ़राज़
Kavita Kosh से
सब लोग लिये संग-ए-मलामत निकल आये
किस शहर में हम अहल-ए-मुहब्बत निकल आये
अब दिल की तमन्ना है तो ऐ काश यही हो
आँसू की जगह आँख से हसरत निकल आये
हर घर का दिया गुल न करो तुम के न जाने
किस बाम से ख़ुरशीद-ए-क़यामत निकल आये
जो दरपा-ए-पिन्दार हैं उन क़त्लगहों से
जाँ देके भी समझो के सलामत निकल आये
ऐ हमनफ़सों कुछ तो कहो अहद-ए-सितम की
इक हर्फ़ से मुम्किन है हिकायत निकल आये
यारो मुझे मसलूब करो तुम के मेरे बाद
शायद के तुम्हारा क़द-ओ-क़ामत निकल आये