भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सभवा बैठलै तोहे पियवा, कि तोहि मोरा हितबन रे / अंगिका लोकगीत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

   ♦   रचनाकार: अज्ञात

निःसंतान पत्नी अपने पति से सोने का कंगन बनवा देने का अनुरोध करती है, लेकिन पति उसका अपमान करते हुए कहता है कि तुम तो कोयल-जैसी काली हो; तुम्हें कंगन अच्छा नहीं लगेगा। पत्नी पति के उत्तर से तिलमिला जाती है। भगवान की कृपा से उसे पुत्र की उत्पति होती है। पति सोने का कंगन बनवाकर अपनी पत्नी को मनाने जाता है, लेकिन अभिमानिनी पत्नी कंगन लेने को तैयार नहीं है। वह उत्तर देती है-‘मैं तो काली कोयल हूँ, मुझे यह सोने का कंगन अच्छा नहीं लगेगा। अपने घर के अन्य लोगों को पहनाओ।’ पत्नी घर के अन्य लोगों की बातों को तो सह लेती है, लेकिन दुःख सुख के साथी अपने पति की बातेॅ उसे असह्य हो उठती हैं।
इस गीत में निःसंतान पत्नी की होनेवाली उपेक्षा का मार्मिक चित्रण हुआ है। साथ ही, यह भी अंतर्ध्वनित है कि स्त्री के जीवन का साफल्य उसके रूप और रंग में नहीं, बल्कि उसके मातृत्व में है। वह कोयल जैसी काली होकर भी अधिक से अधिक मूल्यवान् आभूषणों, पुरस्कारों और प्रतिष्ठाओं की पात्री है।

सभवा बैठल तोहें पिअवा, कि तोहिं मोरा हितबन रे।
ललना, गढ़ा दिऔ<ref>गढ़ा दो</ref> सोना के कँगनमाँ, कँगन हम पहिरब रे॥1॥
ई जनि बोलू हे धानि<ref>सौभाग्यशालिनी पत्नी</ref>, कि फेरू<ref>फिर</ref> जनि बोलहु रे।
ललना, तोहिं धानि कारी कोइलिया, कँगन केना<ref>किस प्रकार</ref> सोभत रे।
ललना, रोहिनी नछतर होरिला जलम लेल, कोइलिया पद छूटल रे॥3॥
घरो<ref>घर के</ref> पछुअरबा सोनरबा, कि तोहिं मोर हितबन रे।
ललना, गढ़ि दहिऽ सोना के कँगनमाँ, कि धानि के बुझाएब रे॥4॥
कँगन पहिरत<ref>पहनेगी</ref> सैयाँ, तोरे पिति पितिआइन<ref>चाची, चाचा की पत्नी</ref> रे।
ललना, हमें धानि कारी कोइलिया, कँगन कैसे सोभत रे॥5॥

शब्दार्थ
<references/>