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सभा / विवेक चतुर्वेदी

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वो सभा एक तालाब थी
उसमें थीं बहुत सी
 यंत्रचालित मछलियाँ
कुर्सियों से बंधी

कुछ मातहत मछलियाँ
दौड़ती हुईं
जिनके चेहरे पर थी हवाइयाँ

सभा में आमंत्रित बड़े मगर का
रास्ता देखतीं
दो मझौली मछलियाँ
 तालाब के मुहाने पर तैनात थीं
सभा की आयोजक बड़ी मछली
तालाब की गहराई से मुहाने तक
 बदहवास दौड़ती थी
पूछती बार बार -क्या मगर आ गए?

सभा में कुछ केकड़े थे जो
कभी आगे,कभी पीछे होते थे
कुछ थे बुद्धिजीवी जलचर
जो अपनी सीपों में बंद थे
पूरी सभा में पहचाने जाने वाले
कुछ आक्टोपस थे

कुछ छात्र मछलियाँ
 कतारबद्ध बैठाई गई थीं
 देखती अपलक
बड़े मगर के लिए तैयार मंच
अनुशासित विचारहीन युवा मछलियाँ
मगर की प्रत्येक मुद्रा पर बजाने को
अभ्यस्त विशेष ताल में तालियाँ

फिर दमकती देह वाली सोनमछली
 प्रशस्ति वाचन को सतर्क
सजीले दस्तावेज लिए
 कुछ सजावटी मछलियाँ
तयशुदा तथ्यों के दस्तावेज
जिन्हें परोसा जाना है
वहाँ मोटी खाल वाले
 विद्रूप कछुए भी थे रेंगते

सभा के बाहर दलदल में लोरती थीं
जो असंख्य छोटी मछलियाँ
ये सभा संविधान में मिले
उनके अधिकारों पर ही थी
पर उनको इस सभा में आने की
 इजाजत ना थी

सभा में जो भी कही जानी थीं बातें
वो सब पहले से ही थीं तयशुदा
सभा के पहले ही बांट दी गई थीं
 संतोष के आटे की गोलियाँ
स्वीकृति में हिलता सिर
 सबसे अनिवार्य मुद्रा थी

बड़ा मगर आया
 तो अपनी दुम पर
खड़ी हो गई मछलियाँ
खुरदरे शल्क वाले
तालाब के अधिपति
उस मगर ने कहा-
हम स्वतंत्र हैं
और मछलियां स्वतंत्रता के
उत्सव में लीन हो गईं
मगर ने कहा - बहुत विकास हुआ
 इन दिनों
और कुपोषित कमजोर जलचर
मुदित हो गए

मगर कहता गया
और तालियों की ध्वनि बढ़ती गई
 बढ़ता गया उन्माद
सभागार के बंद कांच के दरवाजे से झाँकती सच की बूढ़ी माई-मछली
देर तक लाठी ठोकती रही
पर भीतर न आ सकी...

वो सभा एक तालाब थी।