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सभी गुनाह धुल गए सजा ही और हो गई / परवीन शाकिर
Kavita Kosh से
सभी गुनाह धुल गए सज़ा ही और हो गई
मिरे वजूद पर तिरी गवाही और हो गई
रफुगरान ए शहर भी कमाल लोग थे मगर
सितारा साज़ हाथ में क़बा ही और हो गई
बहुत से लोग शाम तक किवाड़ खोलकर रहे
फ़कीर-ए-शहर की मगर सदा ही और हो गई
अँधेरे में थे जब तलक ज़माना साज़गार था
चिराग क्या जला दिया हवा ही और हो गई
बहुत संभल के चलने वाली थी पर अब के बार तो
वो गुल खिले कि शोखी-ए-सबा ही और हो गई
न जाने दुश्मनों की कौन बात याद आ गई
लबों तक आते-आते बद्दुआ ही और हो गई
ये मेरे हाथ की लकीरें खिल रहीं थीं या कि खुद
शगुन की रात खुशबु-ए-हिना ही और हो गई
ज़रा सी कर्गसों को आब-ओ-दाना की जो शह मिली
उक़ाब से ख़िताब की अदा ही और हो गई