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सभ्यता की चीख से इतिहास कांपा, डर गया / उर्मिल सत्यभूषण

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सभ्यता की चीख से इतिहास कांपा, डर गया
वक्ष में संवेदना की एक नश्तर गड़ गया

छटपटाये नेह के रिश्ते, संदेह की चोट से
माँ की ममता पर निठुर इल्ज़ाम बेटा धर गया

दोस्ती और अमन की ये संधियाँ कायम रहे
वक्त अपनी कलम से हस्ताक्षर है कर गया

वो भी दिन थे पिंजरे में कैद थी मेरी उड़ान
अब मेरे परवाज़ को आकाश छोटा पड़ गया

जंगबाज़ों, जंग छोड़ो अमर की बातें करो
खून पीते पीते सर पर खून अब है चढ़ गया

जिं़दगी और मौत में कोई फर्क बाकी न रहा
जिं़दगी का फलसफा उर्मिल को निर्भय कर गया।