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समंद-ए-ख़्वाब वहाँ छोड़ कर रवाना हुआ / जमुना प्रसाद 'राही'

समंद-ए-ख़्वाब वहाँ छोड़ कर रवाना हुआ
जहाँ सुराग़-ए-सफर कोई नक़्श-ए-पा न हुआ

अजीब आग लगा कर कोई रवाना हुआ
मेरे मकान को जलते हुए ज़माना हुआ

मैं था कहाँ का मुसव्विर के पूजती दुनिया
बहुत हुआ तो मेरा घर निगार-ख़ाना हुआ

उगाओ दर्द की फ़सलें के ज़िंदगी जागे
लहू की फ़स्ल उगाते हुए ज़माना हुआ

मैं आईना हूँ हर इक साहिब-ए-नज़र के लिए
मगर ख़ुद अपने ही चेहरे से आष्ना न हुआ

बिखर गई थी सर-ए-राह ज़िंदगी लेकिन
क़दम रूके तो मेरा फ़र्ज ताज़ियाना हुआ