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समगम / रामकृष्ण

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हम चाहऽ ही -
फागुन के हवा निअन
झुर-झुर
रोज-रोज/भोरहरिए/दुपहरिए
साँझ-अधरतिए
तोरे दुआरी के चौखट
अँगनई आउ अँगना में
पसर जाऊँ
बेला-जूही के गन्ह निअन,
तोरे-सोझ/साफ/बग-बग
उज्जर-
मन के पन्ना पर उग जाऊँ
हाजरी के आखर निअन।

हम चाहऽ ही -
सावन के असमान तोपले
बादर बन उतर जाउऽ
काजर के रेघारी पर
हौले।

हम चाहऽ ही -
कुंदरू के लाली छीन
बन जाउँ भिनसारभरल
पूरुब के लाल, टुह-टुह/अलता
तोरे गोड़ के/ हाथ के मेंहदी।
पूछ रहली हे -
गाँव के पता
घर के चउहद्दी
दुआरी के रुख
बाबा के रुझान
आजी के छोह
टोला-टाटी के गोबर नीपल ओटा
माटी पँडोरल भित्ती पक्खा।

डाढ़े-पाते डँडि आइत
खेत के कुच-कुच हरिअरी
अबटन लगल सरसो के गनन्हेरी
फुलहरल देह,
अमलतास आउ सेमर के इतरइनी
सब इआद हे हमरा
आझो
हम चाहऽ ही -
कनहूँ से ढँढ़ के निकालूँ
अपन हिरदा में
गेंदा, गुलाब आउ परास के
मुसकित मुठान।
ठीक, अनमन ओइसने
छितरा जा हल सगरो-बधार में
जखनी
पुरबा बहू के ओठ
होबऽ हल/तनीसुन फरक
लाले अँचरा तर/सौंसे कारिख-असमान
के
उज्जर हो जाहल।
समुन्नर के करेजा पर
उछलित जुआनी में
हमर हिरदा के अखरा जोस
न हे का?
दखिनवारी करे से
ससरल बतास के गन्ह में समाएल
न हे का
हमर सिनेह के निछुन्ना गन्ह?

हम तो असरा में ही
कि कन्ने से फूटऽ हे
एक्कोगो समदन के रेघ
कि समाजाए- ओही रेघे
कि तरबतर होके
महके लगे मह मह
सौंसे दूरा-दलान
ओरी-देहारी हो जाए -
धरती/अकास-समगम।