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समझौतों की यातना / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

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कुछ मन से
कुछ बेमन
समझौते किये बेशुमार।
स्वाभिमान किये बेशुमार।
स्वाभिमान के
ताजे पुष्पों को, कृत्रिम हँसी के-
लबादे से ढँक दिया,
फटी हुई कमीज के ऊपर
नये कोट की तरह
पहन लिया जिन्दगी बार-बार।
अन्तर्प्रदेश में
बसते हैं फणिधर, डसते हैं
बेहोशी से कंधे लटक जाते हैं
जाँघों पर गिर जाती हैं हथेलियाँ,
और मैं समाधिस्थ योगी सा निर्लज्ज
सुनता हूँ नये वीर्य की हुंकार:
क्या दीखता नहीं मन का रेगिस्तान?
क्या कहती होगी पानी की उठान?
कब तक बाहों में धुआँ बाँधते रहोगे।
कब तक पीठ पर लादते रहोगे-
बड़े-बड़े बोरे वजनदार।