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समधिन-1 / नज़ीर अकबराबादी

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करूं किस मुंह से ये यारो बयां मैं शान समधिन की।
लगी है अब तो मेरे दिल को प्यारी आन समधिन की॥
चमन में हुस्न के हों उसके रुख़ और जुल्फ़ पर कु़बाँ।
अगर देखें ज़रा सूरत गुले रेहान<ref>एक सुगन्धित फूल</ref> समधिन की॥
कमर नाजु़क मटकती चाल आंखें शोख़, तन गोरा।
नज़र चंचल, अदा अछपल, यह है पहचान समधिन की॥
सुनहरी ताश का लंहगा, रुपहली गोट की अंगिया।
चमकता हुस्न जोवन का, झमकती आन समधिन की।
मलाई सा शिकम<ref>पेट</ref>, सीना मुसफ़्फ़ा<ref>स्वच्छ</ref>, खु़शनुमा साके़ं<ref>पिंडलियाँ</ref>।
सफ़ा जानू<ref>जाँघ</ref> का आईना, मुलायम रान समधिन की॥
कहूं कुछ और भी आगे जो समधिन हुक्म फ़रमावें।
सिफ़त मंजूर है हमको तो अब हर आन समधिन की॥
बड़ा ऐहसान मानें हम तुम्हारा आज समधी जी।
मयस्सर<ref>उपलब्ध</ref> हो अगर सोहबत हमें एक आन समधिन की॥
हमें एक दो घड़ी के वास्ते दूल्हा दिला दो तुम।
जो कुछ लंहगे के अन्दर चीज़ है पिनहान<ref>गुप्त</ref> समधिन की॥
नज़ीर अब आफ़री<ref>शाबाश</ref> है यार तेरी तब्अ<ref>प्रकृति</ref> को हर दम।
कही तारीफ़ तूने खू़ब आलीशान समधिन की॥

शब्दार्थ
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