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समन्दर में सफ़र के वक़्त कोई नाव जब उलटी / बलजीत सिंह मुन्तज़िर

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समन्दर में सफ़र के वक़्त कोई नाव जब उलटी ।
तो उस दम लोग कहते हैं नहीं मौजों की कुछ ग़लती ।

तुफ़ानी हाल तो केवल कभी बरसों में बनते हैं,
शकिस्ता<ref>टूटी-फूटी, थकी हुई, पुरानी</ref> कश्तियाँ तो ठहरे पानी में नहीं चलती ।

करे उस पल में कोई क्या उदू<ref>दुशमन, बैरी</ref> जब ना-ख़ुदा<ref>नाविक, मल्लाह</ref> ठहरे,
मुसाफ़िर की तो हसरत<ref>अभिलाषा</ref> ख़ुद किनारे लग नहीं सकती ।

हज़ारों बार देखी हैं भँवर में डूबती नैया,
किसी पुरवाई के रुख बदले से ही चल-निकल पड़ती ।

लहर का प्यार भी तो ज्वार-भाटे में छलकता है,
इसी से शोख़<ref>चंचल</ref> साहिल<ref>किनारा</ref> की कभी बाँछें नहीं खिलतीं ।

बहुत गहरा है सागर निस्बतों<ref>रिश्ता, सम्बन्ध</ref> का, डूबकर उसमें
दिले-नाकाम को सीपी वफ़ाओं की नहीं मिलती ।

सुबहा उगता है सूरज आस का फिर डूब जाता है,
किरन आसूदगी<ref>ख़ुशी, आनन्द</ref> की ज़हने दरिया में नहीं घुलती ।

शब्दार्थ
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