समयातीत पूर्ण-4 / कुमार सुरेश
पाँच गुना असहाय और अकेली स्त्री
पाँच गुना अपेक्छाओं और लज्जा से दबी
का पंचम आर्तनाद
किसी के हिर्दय को गीला न कर सका
किसी का हिर्दय न पसीजा
सिद्धों . राजाओं, देवताओं
भूमिपतियों. नगरपतियों और पातियों का भी नहीं
उसका भी नहीं जो
स्वयंबर के समय वचन हारा था रक्छा का
असहाय स्त्री ने
याचना की बलशाली पतियों से
पिताओं से, सिद्धों से राजाओं से
देवताओं से
हर पुकार के साथ क्रीडा करने लगी
कामुक हिंसा
अधिकार कर लिया सारी मर्यादा पर
अनजाने वहां कोंई रिश्ता न बचा
बचा तो एक स्त्री शरीर अनावृत होता
और लोलुप पुरुष दृष्टि मात्र
स्त्री की याचना सुन बज्र हो गए
हिर्दय के कपाट
टूट गयी न्याय की तराजू
आकाश अपना धर्मं छोड गया
तब
वह आया जो प्रेम ही था
यधपि व्यक्ति रूप
तुम पुरुष न थे
भगवान भी नहीं
जो बैठा रहता है मंदिरों में चुपचाप
तुम थे शुद्ध प्रेम
आये और आर्त स्त्री को आवर्त कर लिया
अपने संरख्छंन से
क्या तुम ही एक मात्र
संरखछक हो ?
हे परित्राता