दिन कि जैसे ऊंघते हुए!
शाम जैसे
याद सिरहाने धरी
सुबह कोई
छटपटाती जलपरी
समय के चुपचाप यों टुकड़े हुए!
रात जैसे
मुर्दनी हो गांव में
दोपहर जैसे
बिवाई पांव में
पहर जैसे सांस हों उखड़े हुए!
चांदनी जैसे
कि तीखी-सी जलन
ओस जैसे
क्रूर कांटों की चुभन
मेघ जैसे चीथड़े उधड़े हुए!
गीत जैसे
मरघटों का मर्सिया
उम्र जैसे
कोलतारी हाशिया
स्वप्न पक्षाघात से कुबड़े हुए!