भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

समय आज ये तीरगी बन के आया / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

समय आज ये तीरगी बन के आया
नज़र में तेरी बेरुखी बन के आया

अँधेरा बहुत हो गया हर तरफ था
जला खुद को तू रौशनी बनके आया

गये सूख जब अश्क़ आँखों के मेरी
लबों पे मेरे तू खुशी बन के आया

नहीं प्यास बुझती कभी सिंधुजल से
पुकारा तुझे तू नदी बन के आया

नहीं साँवरे का मिला जब सहारा
वही वक्त बस त्रासदी बनके आया

तुझे सौंप दी ज़िन्दगानी कन्हैया
न जाने तू क्यों अजनबी बनके आया

न बन पायी मीरा न राधा न सहजो
मगर तू मेरी जिंदगी बन के आया