Last modified on 6 नवम्बर 2018, at 18:53

समय उड़ रहा पंख लगाकर / शीतल वाजपेयी

समय उड़ रहा पंख लगाकर, दो पल तो जी लें, मुस्का लें।
जीवन की आपा-धापी से आओ थोड़ा चैन चुरा लें।

जाड़े में वो धूप गुनगुनी अपने आँगन में आती थी,
बारिश में छप्पर से बूँदें झरकर मोती बरसाती थीं,
गर्मी में पूनम की रातों में चलती थी जब पुरवाई
मुरझाई सी कलियाँ मन की फिर से खिलकर मुस्काती थीं,
मीठी-मीठी उन यादों से हम अपने मन को बहला लें ।
जीवन की आपा-धापी से आओ थोड़ा चैन चुरा लें।

चलो रेत गीली है उस पर चलकर कुछ अहसास संजोयें,
और समंदर की लहरों से अपने पद चिन्हों को धोयें,
हाथों से सहला-सहला कर एक घरौंदा आज बनायें
अरमानों के बीज आज कुछ हम अपने आँगन में बोयें
चौखट पर फिर खुशहाली की मिलकर बंदनवार सजा लें।
जीवन की आपा-धापी से आओ थोड़ा चैन चुरा लें।

मुस्कानों का सावन लेकर मन के बाग-बगीचे सींचें,
क्षितिज ओर दिख रहा उजाला फिर हम क्यूँ आखों को मीचें
स्वांसों की आवाजाही की लय को अंगीकार करें तो,
क्रूर काल के निष्ठुर पंजे हमें न फिर बाँहों में भीचें,
जीवन का अभिप्राय समझ हम सुधा-कलश थोड़ा छलका लें ।
जीवन की आपा-धापी से आओ थोड़ा चैन चुरा लें।