भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

समय उसके इशारे पर चलता था / सुनील श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लाईन कटते ही
डुलाने लगती थी बेना
डुलाती रहती थी उसके आने तक
और लाईन थी कि रात-रात भर
कटती थी हमारे शहर में
उठते-बैठते-सोते-जागते
हज़ारों देवताओं को गोहराती थी
पचासेक नाम तो अब तक याद हैं हमें

उसे याद था पूरा सुन्दर काण्ड
और कई चालिसा
हम जब बाहर जाते
स्कूल या किसी काम से
देवताओं को भेज देती हमारे पीछे
देवता हमारी रक्षा करते
हाथ पकड़कर पार करा देते सड़क
लकड़सूँघों से बचाते
ठीक-ठाक पहुँचा देते घर

हम जब बीमार होते
देवता लाते दवाइयाँ
और हमें ठीक कर देते
हर बात उसकी मानते थे देवता
हम देवताओं से चिढ़ते थे

अदृश्य होते हुए भी उनका साथ
हमें नहीं भाता था
हम उनके बिना चाहते थे बाहर जाना
भरपेट खेलना चाहते थे आवारा दोस्तों के संग
ट्रैक्टरों के पीछे लटकना चाहते थे
फाटक पीटकर बड़े घरों के भागना चाहते थे

बिना उसके चखे ही
खा जाना चाहते थे टोनहिनों का भेजा बाएन
जेब में नहीं रखना चाहते थे उजला प्याज
तलुओं में काजल लगाकर जाना हमें नहीं पसन्द था
हम भी पगली बुढ़िया को चिढ़ाकर
सुनना चाहते थे उसकी बेरोक ग़ाली

मगर देवता चुगली कर देते
तब वह ख़ूब गुस्साती थी
ग़ालियाँ भी देती
बड़ी देर तक समझाती
फुसलाती
हम बच्चे होते हुए भी
हार जाते उसकी ज़िद से

वह तानाशाह थी
और समय उसके इशारे पर चलता था
लहरें खूब उठती थीं समन्दर में
मगर उसके बालू के घरौन्दे को
बिना छुए लौट जाती थीं

हर रोज़ आता था रवनवा
जोगी बनकर पंचवटी में
और लछुमन थे कि टलते ही नहीं थे
सीता के रोने-गाने
खिसियाने
चिल्लाने के बावजूद

कहानियाँ चिड़ियाँ थीं
दिन भर उड़तीं आकाश-आकाश
दाना चुगतीं खेत -खेत
फिर लौट आतीं अपने खोते में
वह खोता हमारे साथ सोता था

गर्मी की एक दोपहर
उसी खोते में झाँकते हुए हमने
देखा उस तूफ़ान को जिससे
लाई थी वह कश्ती निकालकर
उसकी तानाशाही कम
अखरने लगी थी तब से

युगों बाद
कोई कहता है जब आज
कि बदल गई दुनिया
हम हंसते हैं
दुनिया उतनी ही बदली है
जितना बदलने को कहकर
वह गई है इसे ।