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समय गुंफित / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

अनंत में अंत
या अंत में अनंत
वलय के बाहर वलय
वलय के बाहर वलय
क्या कोई केंद्र है?
क्या कोई किनारा है?
कहाँ खड़े हों
कि देख सकंे
ये सब एक-साथ
एक बार
पार हो जो कृष्ण-विवर से
पार हो जो भँवर-गुफा से
पार हो जो अँधेरी सुरंग से
जिनको छोड़ा यहाँ पर
मिलते जाना होगा
उन सबसे
प्रेम या नफरत से
तिनके की नोक पर अटकी
पानी की बूँद
बहुत होगी सफर के लिए
इस एक मन या
टन भार को मत देखो
उतर जायेंगे सब खोल
अंत में
अनंत मे
इस विराट में ये लघुता
इस लघुता में ये विराटता
ये रेत घड़ी
हर घंटे बाद
पलटनी पड़ती है
बजता है डमरू
पकड़ो बीच में से
वरना बिखर जायेगा
कण-कण
क्षण-क्षण
अंत में
अनंत में
फिर कोई समेट नहीं पायेगा
समय की ये धूल।