भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
समय बदला / केदारनाथ अग्रवाल
Kavita Kosh से
समय बदला
कटे पत्ते बड़े लम्बे हौंसलों के;
खड़ा केला
जड़ें गाड़े
अब अकेला;
तना भर है
जिए चाहे जिए जैसे
बना भर है
हरा हरदम गया
ग़म से नहीं दहला !
04 अप्रैल 1968