समय में चिड़िया / प्रताप सहगल
पेड़ पर बैठी चिड़िया
निर्भय होकर
फुदकना चाहती है
यहाँ वहाँ
कि समय-चक्र का कोई आरा
फंदा बनकर झूलने लगता है
सहम जाती है चिड़ि़या।
उन्नीस सौ चौहत्तर में
बहुत सहमी थी चिड़िया
उन्नीस महीने लंबी थी वह सहम
उन्नीस सौ सतहत्तर से
उन्नीस सौ अस्सी के बीच
कुछ फुदकी थी चिड़िया
फिर कुछ बहेलियों ने
उसे घेर लिया
उन्नीस सौ चौरासी में झुलस गई थी चिड़िया
अपने अंतरतम तक
लेकिन उसने
चहचहाना नहीं छोड़ा
हालाँकि चहचहाने का अंदाज़
बदलता रहा
पर डरी नहीं चिड़िया।
चिड़िया की मासूम आँखों में
भविष्य के कुछ सपने थे
उन सपनों की धुरी में
एक अनाम मनुष्य था
लेकिन फँस गई थी चिड़िया
मलबे के नीचे
सन् उन्नीस सौ बानबे में।
इस बीच तो समय-चक्र घूम गया
सौ आरों के साथ
बदल गए थे बहेलिए
नए बहेलियों के अंदाज़
इसलिए उसने भी
उन्हीं को वोट डाले थे
नहीं पता चला चिड़िया को
कि कब वोट
जाल में तबदील हो गए
जाल में फँसी रही चिड़िया
पर मुश्किल में थी यूँ
कि जंगल के पीछे भी जाल थे।
उन जालों से निकल
वह फुदक-फुदककर एक लचीली डाल पर जा बैठी
यह कला उसे बहेलियों ने नहीं
उसकी माँ ने सिखलाई थी
पर माँ ने उसे नहीं सिखलाया था
चक्रव्यूह तोड़कर
बाहर निकलना
और अभिमन्यु भी नहीं थी चिड़िया।
आज डरी सहमी चिड़िया
रचे गए चक्रव्यूह की
इस शाख तक
फुदक रही है
बहेलियों के इस समय में भी चिड़िया गा रही है
शायद
अपने होने का उत्सव मना रही है।