समय रोता नहीं चलता है / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय
जब वे रो रहे थे
हंस रहे थे सब जोर जोर से
रोते सब हैं यह भूल गये थे शायद
बदल दिए थे सारा का सारा परिवेश
आवेश में इतना कि पलट देना चाहते थे
जर-जमीन-जीवन का पूरा नक्शा
भूल गए थे वे
इतिहास मिटता नहीं कभी भी
आता है घूमकर अपनी सार्थकता के साथ
उत्पीड़ित आँसू लाचार नहीं होता तब
फौव्वारा बनकर हंसी का फूटता है
सूखे जमीन से बीज बन अंकुरित होता है
बहुत दिन बाद
समय हंसा अपने पूरे जोर-जोश में
बहुत से लोग रो रहे हैं, भूल गए हैं बहुत से
रोने वालों की सुनता नहीं कोई
हंसने की तमीज में रोना भी तो आए भला
समय रोता नहीं चलता है अपने वेग से
बहना आता है
बहो दिल खोलकर समय के साथ
हंस रहे हैं सब, तुम रोओगे दुनिया हँसेगी
पगला गया है कहकर मारेगी पाथर
विस्थापित हो जाओगे अपने ही गाँव, घर, नगर से
सुनो! बहुत हँसे हो अभी तक रोएगा कौन??