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समय शून्य / संतोष श्रीवास्तव

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मैं समय शून्य हूँ
दिन भर के समय चक्र को भूल
भागती रहती हूँ
न जाने कहाँ, न जाने क्यों
फिर भी इंतजार में हूँ
रुक जाएगी जब मेरी भागदौड़
मिलेंगे दो पल बस मेरे होकर
तब मैं कलम बनूंगी
और तुम्हें लिखूंगी

सूरज उगने से
सूरज ढलने तक
जब बंद होगा मेरा
घानी के बैल की तरह जुतना
तब मैं नयन बनूंगी
और तुम्हें पढ़ूंगी
 
जब ज़िन्दगी सुस्ताएगी
उम्र के झरे पत्तों पर
बस हम तुम होंगे
तब तुम अधर बनोगे
और मैं तुम्हें सुनूंगी