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समर निंद्य है / भाग १ / रामधारी सिंह "दिनकर"

समर निंद्य है धर्मराज, पर,
कहो, शान्ति वह क्या है,
जो अनीति पर स्थित होकर भी
बनी हुई सरला है?

सुख-समृद्धि का विपुल कोष
संचित कर कल, बल, छल से,
किसी क्षुधित का ग्रास छीन,
धन लूट किसी निर्बल से।

सब समेट, प्रहरी बिठला कर
कहती कुछ मत बोलो,
शान्ति-सुधा बह रही न इसमें
गरल क्रान्ति का घोलो।

हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त
अपना मुझको पीने दो,
अचल रहे साम्राज्य शान्ति का,
जियो और जीने दो।

सच है सत्ता सिमट-सिमट
जिनके हाथों में आयी,
शान्तिभक्त वे साधु पुरुष
क्यों चाहें कभी लड़ाई ?

सुख का सम्यक-रूप विभाजन
जहाँ नीति से, नय से
संभव नहीं; अशान्ति दबी हो
जहाँ खड्ग के भय से,

जहाँ पालते हों अनीति-पद्धति
को सत्ताधारी,
जहाँ सूत्रधर हों समाज के
अन्यायी, अविचारी;

नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के
जहाँ न आदर पायें;
जहाँ सत्य कहने वालों के
सीस उतारे जायें;

जहाँ खड्ग-बल एकमात्र
आधार बने शासन का;
दबे क्रोध से भभक रहा हो
हृदय जहाँ जन-जन का;

सहते-सहते अनय जहाँ
मर रहा मनुज का मन हो;
समझ कापुरुष अपने को
धिक्कार रहा जन-जन हो;