समर व्यथा / विश्राम राठोड़
यह युद्ध भी अचानक नहीं हुआ
स्वार्थ इसमें भी था, तभी तो इतना भयानक हुआ
भय और व्याकुलता के बीच वीर लड़ते रहे
पक्ष- विपक्ष और जीत की चाहत में आगे बढते रहे
ऐसी युद्ध में कई अनगिनत रोने की आवाज़ आ रही थी
ऐसी घड़ी में वह बिजली की तरह चमचमा रही थी
माना मौत का ख़ौफ़ भी न था उसके मन में
वो सिंहनी की तरह आगे बढ़ रही थी उसके दल-बल में
दो गुटो में यु आमना-सामना हुआ
उस शेरनी का एक सिपाही के साथ सामना हुआ
दो बीज लेकर आयी थी आज अपने देश को बचाने के लिए
यह माँ का आंचल भी ले ले, आयी हु तेरे को सुलाने के लिए
वह सिपाही भी क्षोभ से पीड़ित था कोनसी घड़ी आ गई
पीड़ित मन भी एक नई व्यथा-सी छा गई
विवशता ओर व्याकुलता में नई द्वंद्व-सी छा गई
देखते ही देखते अश्रु की बाढ़ आ गई
एक तरफ़ कर्ण था,मानो दूसरी तरफ़ माँ कुंती आ गई
आओ आज उस युद्ध को रोको, जहाँ नई कालिख-सी छा ग ई
यूँ काग़ज़ की कुछ लकीरों पर इतिहास के पन्ने भी रो देते हैं
जहाँ माँ मर गई, ममता सो गई, मानवता को खो देते हैं
जहाँ अगर इतिहास कलंक, वर्तमान पतंग, एवं भविष्य में
तिमिर-सा छा जाता है
आओ आज उस युद्ध को रोको,
जहाँ मानव, मानव का भक्षक बन जाता है