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सम / स्वरांगी साने
Kavita Kosh से
सम तक पहुँचना
कितना ज़रूरी होता है
घटाते-बढ़ाते हुए मात्रा
गुज़रते हुए कई तिहाइयों से
करते हुए समझौते
मानते हुए पाबन्दियाँ
हम बस चाहते हैं एक सम
सम से चलकर
लौट आना होता है
हमें सम पर ही
बिताने होते हैं कई अन्तराल
झेलना होता है एकाकीपन
छोड़नी होती है जगह
देना होता है ‘दम’
छोटे-बड़े हर टुकड़े को
कहीं लाना होता है
हर ताल की पकड़नी होती है सम
सम नहीं होती
तो कुछ और होता
बँधना तो फिर भी पड़ता ही हमें
यह सम है
जहाँ पूरा होता है आवर्तन ।