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सराबों में यकीं के हम को रहबर छोड़ जाते हैं / प्रेमचंद सहजवाला

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सराबों<ref>रेगिस्तान में जहाँ पानी का भ्रम होता है</ref> में यकीं के हम को रहबर छोड़ जाते हैं
दिखा कर ख्वाब, अपना रास्ता वो मोड़ जाते हैं

शजर<ref>पेड़</ref> काँटों से रहता है भरा यह किसलिए अक़्सर
कि जब भी फ़ूल आते हैं तो राही तोड़ जाते हैं

ज़बाँ तक आते आते सच, निकलता झूठ है आखिर
ख़याल ऐसे समय इखलाक<ref>नैतिकता</ref> के झिंझोड़ जाते हैं

मरासिम<ref>रिश्ता</ref> तोड़ना तो दोस्त फितरत<ref>स्वाभाव</ref> है हसीनों की
मगर फिर किसलिए आ कर दिलों को जोड़ जाते हैं
 
सियासत<ref>राजनीति</ref> के परिंदे हैं ये दहशतगर्द<ref>आतंकवादी</ref> दीवाने
इशारे पर किसी के शह्र में बम छोड़ जाते हैं
 
ए कान्हां जी बिगाड़ा आप का मैंने है क्या आखिर
जो आकर रोज़ मेरी आप मटकी फोड़ जाते हैं.

शब्दार्थ
<references/>