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सरिता / ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज'
Kavita Kosh से
मैं बनी उन्मादिनी सखि
प्रिय मिलन को जा रही हूॅं।
ताल तुक स्वर मंद्र लहरी
सलिल मय है श्याम कबरी
मांग में मोती सजाए
तरल छवि दिखला रही हूॅं।
प्रिय मिलन को जा रही हूॅं।
आज हूं अभिसारिका मैं
प्रिय उदधि की तारिका मैं
व्यग्रता में आप अपनी
कूल द्रुम को ढ़ा रही हूॅं।
मैं बनी उन्मादिनी सखि
प्रिय मिलन को जा रही हूॅं।
मैं कभी मुग्धा सरल बना
खंडिता फिर हो गयी क्षण
बंक भ्रू ले चपल दृग से
असूया दरसा रही हूॅं।
मैं बनी उन्मादिनी सखि
प्रिय मिलन को जा रही हूॅं।
व्योम गंगा मैं कहाती
मैं धरा की जाह्नवी हूॅं
अचल उर की लालसा से
जगत को नहला रही हूॅं।
मैं बनी उन्मादिनी सखि
प्रिय मिलन को जा रही हूॅं।