भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सरे-मक़तल भी सदा दी हमने / नासिर काज़मी
Kavita Kosh से
सरे-मक़तल भी सदा दी हमने
दिल की आवाज़ सुना दी हमने
पहले इक रौज़ने-डर तोड़ा था
अबकी बुनियाद हिला दी हमने
फिर सरे-सुब्ह वो किस्सा छेड़ा
दिन की कंदील बुझा दी हमने
आतिशे-ग़म के शरारे चुनकर
आग जिन्दां में लगा दी हमने
रह गये दस्ते-सबा कुम्हलाकर
फूल को आग पिला दी हमने
आतिशे-गुल हो कि हो शोल-ए-साज़
जलने वालों को हवा दी हमने
कितने अदवार की गुमगश्ता नवा
सीन-ए-नै छुपा दी हमने
दमे-महताब फिशां से 'नासिर'
आज तो रात जगा दी हमने।