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सरोज नवानगरवाली / विंदा करंदीकर / स्मिता दात्ये

मेरे रोज़ के आने - जाने के रस्ते पर
पड़ता था सरोज का घर ।
याद है मुझे वह उसका
पुराने घर का
लिपा-पुता कमरा, परदा टँगा;
जिसमें उसके उस जीवन के अनेक वर्ष बीते ।

रात में जब गुज़रता मैं उस रस्ते से,
रोज़ दिखाई देता
दृश्य ऐसा
देख जिसे मन ही मन मैं लज्जित हो उठता —
लपेटकर नखरीला आँचल,
समेटती हाथों से मृदुल कुन्तल,
आँज कर नयनों में काजल,
मोहक नखरे दिखलाती,
हल्के से होठ दबाती, और करती हुई इशारे,
खड़ी दीखती वह सदा प्रतीक्षारत !
प्रतीक्षा किसकी ?
सारे जग की, जो भी आए, बस, उसी की;
तब कोई —
छड़ी टिकाता,
बड़ी-सी पगड़ी पहने,
देखता इधर-उधर,
चुपके से घुसता कमरे में खाँसते हुए ।
सरोज बढ़ती आगे ।
हाथ उसके तब बन्द कर देते द्वार ।

फिर भीतर से आती हल्की खनक
सिक्कों की !
सुबह उसी रास्ते से गुज़रते
हुए रोज़ दिखाई देता
अलग ही दृश्य
देख जिसे भर आता हृदय —
उसी द्वार में,
उसी जगह पर,
बैठती सरोज आकर ।
ऊँघते - ऊँघते बीनती चावल ।
काले, कोमल बिखरे कुन्तल
पीठ पर क्रीड़ा करते,
लटें घुँघराली
खेलती गालों पर ।
सामने पड़ी चलनी
थकी आँखें चञ्चल
बीनती जाती मोटे चावल
साथ ही बहती जाती
नयन जल की धार शीतल ।

मराठी भाषा से अनुवाद : स्मिता दात्ये