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सर्ग छह / राधा / हीरा प्रसाद 'हरेन्द्र'

राधा-मोहन कथा-कहानी,
जतना कहलोॅ जाय।
सब लागै छै थोड़े टानी,
मनमाँ कहाँ अघाय॥1॥

सब्भे सखियन बेचैनी सें,
खोजै बहुत उपाय।
केना रोकौं मनमोहन केॅ,
जैतें मथुरा आय॥2॥

जखनी मोहन मथुरा चललै,
छोड़ी गोकुल धाम।
कोय सखी पहिया तर बैठै,
पकड़ै कोय लगाम॥3॥

राधा तड़पेॅ समझ जुदाई,
खूब बहाबै लोर।
मत जा कान्हा, मत जा कान्हा,
खूब मचाबै शोर॥4॥

प्राण बिना जेना तन सूना,
चन्दा बिना चकोर।
कोयल बिना बसन्त अधूरा,
श्यामल घन बिन मोर॥5॥

मणि बिनु मणियर जीव विकल ज्यों,
जल बिन विह्वल मीन।
कुंज गली, यमुना तट, राधा,
मनमोहन बिन दीन॥6॥

पंख कटलका पक्षी नाक्ती,
राधा अति लाचार।
मनमोहन बिन सूना-सूना,
लागै जग-संसार॥7॥

सौ-सौ वादा करलक मोहन,
खैलक किरिया ढेर।
लौटी ऐबै जल्दी मानोॅ,
कहाँ लगैबै देर॥8॥

बढ़लोॅ आगू बड़ी कठिन सेॅ,
रथ समझाय-बुझाय।
मंत्र मोहनी मनमोहन के,
दै छै भूत भगाय॥9॥

तब सें राधा कृष्ण याद मेॅ,
जपे कृष्ण के नाम।
वृन्दावन के रास रचइया,
जय-जय हे सुखधाम॥10॥

कंशराज मथुरा नगरी के,
रस्ता मोंन लुभाय।
कृष्ण चन्द्र बलदाऊ दोनों,
खूब चलै अगुआय॥11॥

रस्ता मेॅ इक धोबी मिललै,
टेढ़े ओकर चाल।
खूबे ओकरा नजदीक जा,
बोलै तब गोपाल॥12॥

भैया एगो बात सुनी ले,
कहना हमरो मान।
मथुरा मेला देखै वाला,
छिकौं हम मेहमान॥13॥

कपड़ा हमरोॅ साफ न सुथरा,
छी बड्डी लाचार।
कुछ कपड़ा बस दू दिन खातिर,
दै दे तोंय उधार॥14॥

सुनथैं धोबिया मुँह निहारी,
बोलै बड़ी तपाक।
अरे दुष्ट नैं पता इ तोरा,
राजा के पोषाक॥15॥

मोहन बोलै मीट्ठे-मीट्ठे,
धोबी दै दुत्कार।
उछली कखनूँ साँप ढोढ़बा,
रङ मारै फुफकार॥16॥

मोहन कहै दुश्ट! लागै छौ,
आबी गेलौ काल।
समझैलोॅ नैं मान्हैं कखनूँ
सुधरै छौ नैं चाल॥17॥

धोबी ठनकै ठनका नाक्ती,
गरम न हो नादान।
देवी पर चढ़ला सें पहिनें,
ऐझैं जैतो प्राण॥18॥

बलिदानी बकरा जो दूर दिन,
आरू बात बनाव।
हटें नजर सें कहीं दूर जा,
आपन खैर मनाव॥19॥

इतना सुनथैं एक तमाचा,
देलक प्रभुवर खीच।
गिरै तुरन्त धड़ाम धरा पर,
गेल अमर पुर नीच॥20॥

आगू बढ़लै जेन्हैं फेरू,
रस्ता मेॅ इक नार।
देखै जैतें खूब सजैनें,
हाथें चन्दन थार॥21॥

हाव नारी के दृष्टि ब्रह्मा,
करै बड़ी बेतूक।
देखथैं सब समझै ओकरोॅ
पूर्व जनम के चूक॥22॥

कुबड़ी आरू रहै कुरूपा,
कुब्जा ओकर नाम।
दासी कंशराज के रहतें,
जपै सदा घनश्याम॥23॥

परम भक्त यदुवर के कुब्जा,
कान्हा समझै बात।
रस्ता रोकै आरू टोकै,
बनवारी मुस्कात॥24॥

मृगनयनी, पिकबैनी कुब्जा,
करोॅ तनि एहसान।
ई बढ़िया चन्दन के हिस्सा,
दे देॅ हमरा दान॥25॥

कुब्जा सुनथैं अहिनोॅ बोली,
गेल चरण लपटाय।
यही दिनाँ खातिर यदुनन्दन,
छेलौं आस लगाय॥26॥

हे छवि भूषण, हे शील सदन,
हे शोभा के धाम।
हे कमल नयन, हे सरल अयन!
मनमोहन सुखधाम॥27॥

मनमोहन के अन्तर्यामी!
हे करूणा के धाम।
शरण पड़ल छी दीन-दुखी के
बिपदा हरोॅ तमाम॥28॥

कहतें-कहतें हरि चरणों पर,
कुब्जा शीश नवाय।
बलदाऊ भैया सें कान्हा,
बोलै तब मुस्काय॥29॥

भैया सरल हृदय वाली ई,
दीखै बड़ी उदास।
कुबड़ापन के कारण बड्डी,
करै लोग उपहास॥30॥

बलदाऊ बोलै रे कान्हा!
बड्डी छें विख्यात।
तोरा खातिर है दुनिया मेॅ,
कठिन कोन छौ बात॥31॥

थोड़ोॅ गोड़ोॅ के गरदा सेॅ,
पत्थर भेलै नार।
गाछो पुरुष बनाबै वाला,
तोहीं झटका मार॥32॥

बलदाऊ के मनमा देखी,
चललै अहिनोॅ चाल।
कुब्जा के कुबड़ापन मेटै,
एक्खै पल गोपाल॥33॥

मनमोहन के हाथ लगैथौं,
कुबड़ी भै छविवान।
लीलाधारी के लीला सें,
भै देवी उपमान॥34॥

कुब्जा तारी आगू हाथी,
मिलै कुबलिया पीड़।
दून्हुँ भाइयें मारी-मारी,
तोड़ै ओकर रीढ़॥35॥

चाणुर मुष्टिक मुक्खैं मारें,
गेलै तुरत बिलाय।
के ठहरतै एकरा आगू,
गेलै सब छितराय॥36॥

खोजै मामा कंश कहाँ छै,
उत्पाती, मनजोर।
जकरा सिर पेॅ मड़राबै छै,
काल घटा घनघोर॥37॥

कंशराज बैठी मचान पर,
देखै छेलै खेल।
चाणुर मुष्टिक एक्खै लाती,
सीधे जमपुर गेल॥38॥

कंशोॅ के गल्ला सें गर्जन,
अब नैं बाहर होय।
सोचै मन-मन ई संकट सें,
आय बचाबै कोय॥39॥

ताकै सगरे पर न´् आबै,
मंत्री, सेना पास।
फसलोॅ जोखिम मेॅ जानी हौ,
होलै बड़ी निराश॥40॥

फेरू ठाम्हैं पहुँची गेलै,
वहीं ओकरोॅ काल।
जोर लगैनें उछली पकड़ै,
चोटी तब गोपाल॥41॥

कंशराज के चोटी पकड़ी,
देलक पटका मार।
बन्दी राजा जोर-जोर सें
करै खूब जयकार॥42॥

मैयो-बाबू केरोॅ पूजै,
बाहर लानी गोड़।
नाना के गद्दी, जीवन में,
देलक नबका मोड़॥43॥

मचलै जय-जयकार पुरी मेॅ,
झलकै सगर उमंग।
नाचै, गाबै, मौज मनाबै,
बच्चा, बूढोॅ संग॥44॥

कंशोॅ रङ दामादोॅ खातिर,
जरासंध पगलाय।
मथुरा केॅ विध्वंस कै के,
लै छै मोंन बनाय॥45॥

सहयोगी राजागण गेलै,
ढेरी स्वर्ग सिधार।
ऊ सब तेॅ होबे करतै जे,
विधना लिखै लिलार॥46॥

मारी-मारी सब सेना केॅ,
हरि-हलधर दू भाय।
जरासंध केॅ जिन्दा छोड़ी,
घर भेजै यदुराय॥47॥

जरा मूढ़ नैं शिक्षा पाबै,
करै वार कै वार।
लवणासुर रङ योद्धा सब,
होलै तब तैयार॥48॥

श्री कृष्ण सें पार के पैतै,
सबकेॅ दै चकराय।
लवणासुर केॅ बड़ी बुद्धि सें,
देलक तुरत जराय॥49॥