सर्ग - 15 / महर्षि मेँहीँ / हीरा प्रसाद ‘हरेन्द्र’
‘सत्संग तो मेरे स्वाँस है, ‘बाबा केरों उक्ति।
लागै जेना धर्म-ग्रंथ के, उपदेशात्मक सूक्ति॥१॥
आत्म-ज्ञान फाबी केन बाबा, करै सदा सत्संग।
मानव के कल्याण करै के, मन में बड़ा उमंग॥२॥
अमर ज्ञान बाँटै के लेली, सत्संगों में लीन।
हमरों भारत छेलै तखनी, यवनों के आधीन॥३॥
बाइसवाँ अधिवेशन होलै, ग्राम धरहरा आय।
ढोढ़ाई जी भार समूच्चा, लेनें रहै उठाय॥४॥
तेइसवाँ अधिवेशन जानों, गुरुमेला कहलाय।
गुरुमेला में ध्यान-साधना, आयोजन करवाय॥५॥
ध्यान योग के करे परायण, भ्रमण मंडली साथ।
घूमै सगरे वैमें लोगें, खूब बंताबै हाथ॥६॥
कोरका निवासी सतोषी, दै छै एक सलाह।
राम कृष्ण भी रामला केरों, भरै जरा उत्साह॥७॥
पैदल घूमै सोलह गामे, करै वहाँ सत्संग।
सब्भै के उत्साह देखी कें, बाबा रहलै दंग॥८॥
रहै छबीसवाँ अधिवेशन, बाबा कुप्पा घाट।
अधिवेशन में सतसंगी सब, जोहै छेलै वाट॥९॥
भक्तों के पूरा आग्रह पर, लैछै फेनूँ भाग।
मगर गुफा केरों एक्कोपल, नैंचाहै परित्याग॥१०॥
अंतिम दिन दू सौ नर-नारी, भजन-भेद कर प्राप्त।
बाबा के आस्था सागर में, सब्भे होलै आप्त॥११॥
वही समय चौंतीसों वाला, जानी लें भूकम्प।
सुनी-सुनी आवाज भयंकर, सब छेलै हड़कंप॥१२॥
रहै महाप्रलयंकारी ऊ, लोंगोन छेलै त्रस्त।
बड़का-बड़का महल-अटारी, सब्भे होलै ध्वस्त॥१३॥
लेकिन जानी अचरज करभे, सत्संगों के लोग।
ध्यान-साधना करथे रहलै, करथे रहलै योग॥१४॥
क्षति नैंकाकरो तिलभर होलै, अचरज केरों बात।
सही सलामत सब्भे रहलै, यहे कहों दैवात ॥१५॥
अधिवेशन से लौटी बाबा, भागलपुर जब आय।
भेंट करै लें सन्यालो से, लेलक मोंन बनाय॥१६॥
भूपेन्द्रनाथ सनयाल रहै, साधक परम उदार।
श्यामा चरण लाहिड़ि केरों, शिष्य गला के हार॥१७॥
परिवारों में जीवन जीतें, योगी आरू भक्त।
ध्यान-साधना योग करै में, रहै सदा अनुरक्त॥१८॥
प्रश्नौत्तर भी ढेरी होलै, बातचीत के संग।
दोन्हूँ के मन रहै रंगलों, लागै एकके रंग॥१९॥
एक रहै सन्यासी आरू, दूजा रहै गृहस्थ।
अंतर ऐसे ज्यादा कुछ नै, दोनों बिलकुल स्वस्थ॥२०॥
मन्द्रांचल पर्वत बौंसी के, जे बिलकुल नजदीक।
आश्रम वहीं सानयालजी के, रहै परम रमणीक॥२१॥
प्रसिद्ध सान्यालों के आश्रम, कहलाबै गुरूधाम।
मन्द्रांचल पर्वत के आबै, धर्म-ग्रंथ में नाम॥२२॥
मठी समुंदर रत्न निकालै वाला जे मंदार।
गौरव गाथा मानदारों के, जानैंछै संसार॥२३॥
सत्संगों सेन लौटी बाबा, आबै छै गुरुधाम।
सान्यालो के पैर छुवी कें, करलक तुरत प्रणाम॥२४॥
वहीं धर्म पत्नी जब आबै, जोडे उनका हाथ।
अभिवादन के बाद बैठली, पतिदेवों के साथ॥२५॥
बाबा बोलै शंभू-भवानी, केरों दर्शन आज।
दोन्हूँ केरों आशीर्वादों से होतै सब काज॥२६॥
आबै घरी सान्याल जी नें, दै छै एक अनार।
मिललै जब प्रसाद बाबा के, मन में हर्ष अपार॥२७॥
एक व्यक्ति कें एगो दना, बाँटै के लै ठान ।
धन्य-धन्य छै मेँहीं बाबा, धन्य-धन्य अरमान॥२८॥
बत्तीसवाँ सेन सैंतीसवाँ, अधिवेशन करवाय।
जगह-जगह सत्संगों केरों, महिमा दै बतलाय॥२९॥
कुरमीचक मलहरा गाँव अब, झारखंड कहलाय।
आदतीसवाँ अधिवेशन के, वैझै मोन बनाय॥३०॥
अधिवेशन मेँ हाथ बंटाबै, बाबू राम प्रसाद।
डाक्टर रहै खगड़िया केरों, करलों गेलै याद॥३१॥
करै हुनी प्रस्ताव उपस्थित, मानों एक विचार।
मनें जयन्ती बाबा केरों, हमरो छै उद्गार॥३२॥
सब लोगों कें बड़िया लागै, उनको उचित विचार।
वही साल आजादी मिललै, भारत कें उपहार॥३३॥
सैंतालीसों से अभियो तक, निश्चय साले साल।
मनैंजयन्ती बाबा केरों, बजै झाल-करताल॥३४॥
प्रथम जयंती उत्सव घरियाँ, झलकै सबमें हर्ष।
आयु रहै बाबा के वै दिन, पूरा बासठ वर्ष॥३५॥
चालिसवाँ अधिवेशन होलै, अड़तालीस मेँ भाय।
वही साल निर्वाण बापू के, सब्भै शोक मनाय॥३६॥
अड़तालीस सें अधिवेशन के, नामों भी बदलाय।
आखिल भारतीय संतमत के, अधिवेशन कहलाय॥३७॥
उनचासो मेँ इकतालीसवाँ, अधिवेशन अभिया।
भागलपुर के परबत्ति मेँ, चुनलक भव्य स्थान॥३८॥
जगदीश काश्यप जी पधारे, अधिवेशन में भाय।
अधिवेशन के गौरव गरिमा, देखी हर्ष मनाय॥३९॥
लघुशंका के खातिर जंगलै, तीन बजे जब रात।
पण्डालों में घूमी देखै, सगरे अदभुत बात॥४०॥
सत्संगीगण बैठी-बैठी, रहै लगैनें ध्यान।
मेँहीं बाबा के निवास पर, करै तुरत प्रस्थान॥४१॥
बबबा केन ध्यानों में पाबी, चकित रहै तत्काल।
ज्योति-पुंज सेन चमकै छेलै, बाबा केरो भाल॥४२॥
सुबह-सुबह भाषण में बोलै, ‘हुआ पूर्ण अरमान।
बाबा में मैं दिख रहा हूँ, सही बुद्ध भगवान॥४३॥
इतने सारे लोंगो का जब, एक साथ हो ध्यान।
निश्चय ही तब संभव है, इस जग का कल्याण॥४४॥
बयालीसवाँ अधिवेशन छेलै, ईस्वी रहै पचास।
पारित होलै अधिवेशन में, प्रस्ताव एक खास॥४५॥
एक पत्रिका मासिक निकलें, सबके यहे विचार।
वै माध्यम से सत्संगों के होते सदा प्रचार॥४६॥
श्री हरी कृष्ण दास जी ‘टण्डन’, रहै वहाँ फिलहाल।
लोग पुकारै उपनामों सेन, उनका चुन्ना लाल॥४७॥
देवी बाबा केरो चेला, छेलै उंकोन बाप।
ध्यान-साधना करै हमेशा, बैठी के चुपचाप॥४८॥
रहै पत्रिका जे प्रस्तावित, ‘टण्डन’, सोच-विचार।
रखै ‘शांति-संदेश’ नाम तब, करै लोग स्वीकार॥४९॥
आज तिलक भी छपी रहल छै, आध्यात्मिक ऊ पत्र।
संत-मतों केन छिरियाबै छै, यत्र-तत्र-सर्वत्र ॥५०॥
पत्रिका के प्रथम संपादक, रहलै विश्वानन्द।
बाबा केरो कृपा दृष्टि सेन, नैंछै अभियो बंद॥५१॥
समपादकीय, सत्संग सुधा, मुख्य विषय अनमोल।
सदा संतवाणी छापै छै, जे मिश्री के घोल ॥५२॥