सर्ग - 16 / महर्षि मेँहीँ / हीरा प्रसाद ‘हरेन्द्र’
जून महीना मूषिकाल जेना,
धूपें देहर जलाबाई चाय।
कोणता-ओहारी बैठी केन,
लोगे समय बिताबाई चाय॥१॥
उमस रात में पंखा झेली,
रात बिताबै जागी केन।
लेकिन ई सब धूपें, गर्मी,
की करते बैरागी केन॥२॥
जाड़ा, गर्मी, बरसातों के
असर पड़े देहातों में।
जहां भूमि पर लेटी लोंगे,
समय बिताबै रातों में॥३॥
एक जून बावन में छेलै,
उदघाटन सत्संगों के।
शिव पूजन सहाय जी आबै,
वर्षा रहै उमंगों के॥४॥
श्री सुधांशु जी ‘द्विज’ जी साथेन,
उदघाटन में आबै छै।
अध्यक्षों केरो आसन पर,
बाबा कें बैठाबै छै॥५॥
उदघाटनकर्ता सहाय जी,
आबी दीप जलाबै छै।
साहित्य मनीषी ढेरी छेलै,
सबभें हर्ष मनाबै छै॥६॥
अध्यक्षों के पद सेन बाबा,
साहित्यों के परिभाषा।
बतलाबै छै जहीनों छेलै,
उनका सेन सबके आशा॥७॥
‘हिंदुस्तान’ ‘हिन्द’ हिन्दी’ के,
अर्थ बताबै खोली कें।
कर्मकांड के उदाहरण भी,
दै छै साथे घोली कें॥८॥
आर्यावर्ते, भारत खण्डे,
कर्मकांड में ऐलो छै।
हिन्द, हिंदवी, हिन्दी, हिन्दू,
वै में कहाँ समैलो छै॥९॥
सबक नाम बदलै के बाबा,
दै छै सब विद्वानो कें,
लाचारी में व्यक्त करे छै,
आगू अपना आनो कें॥१०।
‘भारतीय अपने को जानूँ,
भारत देश हमारा है।
और भारती भाषा सबकी,
तन-मन जिस पर वारा है॥११॥
बाबा के ओजस्वी वाणी,
मुग्ध करे विद्वानों के।
बाबा तेन बाँटै में छेलै,
सगरे अपना ज्ञानों केन॥१२॥
बातचीत के रात सिलसिला,
जखनी हॉलों छै जारी।
मेँहीं बाबा बैठी गेलै,
बीचों मेँ पलथी मारी॥१३॥
श्री शाय जी प्रसन्नता केन,
व्यक्त करे छै बोली के।
फेनूँ कुछ उद्गार रखै छै,
लें साथे हमजोली कें॥१४॥
‘स्वामी जी! मैं सही व्यक्तिगत,
सहमत सभी विचारों से।
पर मैं हूँ लाचार जरा सा,
आंदोलन के मारो से॥१५॥
‘हिन्दी राष्ट्र भाषा आंदोलन’,
पूर्ण सफलता के पाठ पर।
मैंने आसान धार लिया है,
सबसे आगे के रथ पर॥१६॥
एक नया आंदोलन उसमें,
अगर जोड़ना चाहूँगा।
नहीं सफलता हाथ लगेगी,
तो पीछे पछताऊँगा॥१७॥
मैं अस्वस्थ रहा करता हूँ,
मुझमें अब सामर्थ्य नहीं।
आगे जो मैं कदम उठाऊँ,
हो ना जाये व्यर्थ कहीं॥१८॥
अमर नाथ झा, द्विज, सुधाशू जी,
स्वस्थ साहित्यकारों के।
मोन हमेशा रहै पक्ष मेँ,
सदा ‘सहाय’ विचारों के॥१९॥
लक्ष्मी नारायण सुधाशू जी,
अवंतिका के संपादक।
बाबा के बढ़िया विचार के,
बनलै समुचित सवाहक॥२०॥
भारत भर केरोन साहित्यिक,
बाबा के मानसा जानै।
शब्दों के जे व्याख्या होलै,
शब्दकोष सम्मत मानैं॥२१॥
तिरपन मेँ आचार्य विनोबा,
पद यात्रा केरो आदि।
भाषण दै डाली पड़ाव जब,
देखै भारी आबादी॥२२॥
भूदान यज्ञ केरो मतलब,
जमींदार कें समझाबै।
निज जमीन के छटठा हिस्सा,
दान करे लें बतलाबे ॥२३॥
भाषण के उपरान्त एक ठो,
पुस्तक लिखलों गीता पर।
‘गीता परवचन’ बेचे छेलै,
सबके हेतु सुभीता पर॥२४॥
एगो प्रति बाबा कें मिललै,
देखै लेली हाथों मेँ,
मनोयोग सेन खूब पढलकै,
धीरज राखी साथों मेँ॥२५॥
बात जँचे नैंजे बाबा कें,
राखै छै चिहनों पारी।
संत विनोबा जी सेन मिललै,
जखनी ऐलै मनिहारी॥२६॥
अपनों-अपनों बात रखलकै,
दोन्हूँ जब पारा-पारी।
किन्तु विनोबा बतलाबै छै,
अपनों कुछछू लाचारी॥२७॥
‘कर्मयोग’ पर ज़ोर विनोबा,
जी जब मारै कस्सी कें।
‘ध्यान-योग’ पर मेँहीं बाबा,
बोलै बड्डी हँस्सी कें॥२८॥
‘समाधि’ ऊपर बात निकललै,
दोनों छै अच्छा ज्ञाता।
एगो छै भूदान करै में,
एगो ज्ञानों के डाटा ॥२९॥
एक दोसरा के कामों के,
जब करलक खूब समीक्षा।
दोनों ते यज्ञों में छेलै,
दोन्हूँ के पावन इच्छा ॥३०॥
मन भरला पर बाबा बोलै,
‘भूदान यज्ञ का भाफ़ी।
मैं भी बनना चाह रहा हूँ,
मैं भी तो बिल्कुल त्यागी॥३१॥
बारह एकड़ भूमि यहीं है,
लें पहले छट्ठा हिस्सा।
आगे फिर प्रारम्भ करैगे,
कोई भी बढ़िया कैसा॥३२॥
दू एकड़ धरती दानों के,
बाँटै तुरत गरीबों में।
के देखै छै की छै लिखलों,
ककरा कहाँ नसीबों में ॥३३॥
संध्या वेला उपासना लें,
बाबा लौटी आबै छै।
उधर विनोबा जी भी अपनों,
आगू काम बढ़ाबै छै॥३४॥
बाबा एक दार्शनिक छेलै,
रहै अध्ययन शास्त्रों के।
धर्म ग्रंथ के पन्ना उल्टी,
चरित्र देखै पात्रों के ॥३५॥
जानैंकेरों सदा लालसा,
लगलों जकरा अंदर में।
संतुष्टि के बात नैंकहियों,
डूबै ज्ञान समुंदर में॥३६॥
सुकरातों केरों शब्दों में,
वहें दार्शनिक कहलाबै।
सब प्रकार के ज्ञानों से जे,
अपना मन कें बहलाबै॥३७॥
ई सब्भै गुण रहै समैलों,
महर्षि मेँहीं बाबा मेँ।
उनका खातिर फर्क जरा नै,
काशी आरू काबा मेँ ॥३८॥