सर्ग - 19 / महर्षि मेँहीँ / हीरा प्रसाद ‘हरेन्द्र’
संसारों के कुछछू देशे, बाबा के सम्मान।
व्यक्त चमकते रहै सदा, जेना कें दिनमान॥१॥
देशों सें कुछ दूर देश छै, कहलाबै छै रूस।
कहीं झोपड़ी, कहीं इमारत, कहीं-कहीं छै फूर्स॥२॥
कहीं गरीबी, कहीं अमीरी, झण्डा लाल निशान।
साम्यवाद केरो अनुयायी, देशों के पहचान॥३॥
भक्ति-भाव भरलों धरती पर, आस्तिक-नास्तिक लोग।
छै देशों गौरव-गाथा में, सब्भै के सहयोग॥४॥
रूसो में बाबा के शिष्या, नीना छेलै नाम।
बाबा केरों ध्यान करै में, बीतै सुबहो-शाम॥५॥
रूसी शिष्या नीना पूजै, बाबा के तस्वीर।
डांटै बापें ‘फेकों इसको, नीना बड़ी अधीर॥६॥
‘महर्षि मेँहीँ परम हंस जी, भारत केरों संत।
इनकी महिमा जितनी गाऊँ, होगा कभी न अंत’॥७॥
अपने सदगुरु महाराज का, कैसे हो अपमान।
नस-नस में अब समा गया है, बाबा का सम्मान॥८॥
उत्तर सुनथे आग बबूला, पिता दिखाबै क्रोध।
की दुनियादारी छै देखों, बातों के प्रतिशोध॥९॥
‘बिरुद्ध रूसी परंपरा के, पहुँचाई है ठेस।
घर से बाहर शीघ्र निकाल जा, पालन कर आदेश॥१०॥
बाबा के तस्वीर हाथ में, पूजा के सामान
नीना घर सें बाहर निकलै, करने ही गुणगान॥११
इधर पुलिस घर में आ धमकै, ‘नीना कहाँ बताव।
कैद किये जाओगे या तो, जल्दी वापस लाव’॥१२
नीना खोजी वापस लानै, बाबा अहिनों संत।
माँफी माँगे पिता तखनियें, महिमा छै बेअंत॥१३॥
कोस हजारों दूर रहै जे, बाबा ध्यान लगाय।
कुप्पाघाटों सें बैठी कें, दै छै कष्ट भगाय॥१४॥
दयालुता के देव कहावै वाला बाबा संत।
आश्रम में बीमार पड़े जे, भेजै दवा तरंत॥१५॥
शीला देवी कलकत्ता सें ऐलै बाबा पास।
बहुत दिनों सें दर्शन केरों, रहै लगैनें आस॥१६॥
रातों भर अपना कमरा में, कानी करलक भोर।
बाबा खुद आबी दै दर्शन, देखै आँखी लोर॥१७॥
बाबा बोलै आश्रम आकार, क्यों बैठी हो मौन।
आँख खोलकर दुनिया देखो, जानो मैं हूँ कौन॥१८॥
शीला बोलै ‘बाबा मैं तो, खूब रही हूँ जान।
अहैतुकी जो कृपा-प्रेम है, सबकी है पहचान॥१९॥
साधारण औरत होकर मैं, कई पुरुष के साथ।
लड़ी मुकदमा, विजय लगी है, हरदम मेरे हाथ॥२०॥
अदभुत कृपा आपकी गुरुवर, जीवित हूँ मैं आज।
बाबा तो अंतर्यामी हैं, छिपा नहीं है राज’॥२१॥
‘आगे भी हर कष्ट हरूँगा, हर लूँगा अवसाद।
बाबा अपनों निवास गेलै, दें कें आशीर्वाद’॥२२॥
कष्ट हरलकै मेँहीं बाबा मेटै सब भय-त्रास।
आशीष पाबी प्रसन्न होलै, छेलै बड़ी हतास॥२३॥
रहै गेहुआं साँप गुफा मेँ लाठी में लटकाय।
सेवक बाहर लानी दै छै बड्डी दूर भगाय॥२४॥
आश्रम छोड़े कारण चिंतित गेलै गंगा ओर।
मछुआ देखी डरलै फेनूँ लाठी मारै ज़ोर॥२५॥
गंगा तट पर मरण लिखलका, पूरा होलै आज।
बेचारा निर्दोष नाग पर तत्क्षण गिरलै गाज॥२६॥
बाबा सुनथे कानी भरलै ‘हुआ बहुत अन्याय।
आश्रम का ही एक देवता चला गया ठुकराय’॥२७॥
कुप्पाघाट घाटें कुत्ता बिल्ली चूहा खेलै साथ।
भूलहों सें नैंसमझै कखनूँ कोनों जीव अनाथ॥२८॥
एक बार सादक ध्यानों मेँ, बिछछू बीचे-बीच।
चललो गेलै बाबा केरों, आगू बड़ा लगीच॥२९॥
ढेरी लोंगोके बीचों मेँ, बिच्छू भी निश्शंक।
जीव-जीव मेँ भेद जरा नै, चलतै केना डंक॥३०॥
सदा हावील चेयर पर बैठी, बाबा राखै ध्यान।
बाबा के आश्रम मेँ छेलै, सब्भे के कल्याण॥३१॥
सहिष्णूता के दूत हमेशा, नैंचाहै अपकार।
करतें रहलै कृतघ्नता के, भी हरपल सत्कार॥३३॥
बोलै बाबा ‘एक बार जब’ घर मेँ आग लगाय।
देख रहा ठा खड़ा तमाशा, निकला जान बचाय॥३४॥
दौड़ पड़ा वह दुष्ट हाथ में, लेकर झट तलवार।
इक सतसंगी आगे आकर, बचा लिया झट वार॥३५॥
मैंने उसको माँफ किया था, प्रभु को ना स्वीकार।
कुष्ट रोग से ग्रसित कष्ट में, छोड़ा जब संसार॥३६॥
रामानुजम जोला अधिकारी, भागलपुर का नाम।
प्रभावित सतसंग सें पूरा, आबी करै प्रणाम॥३७॥
आगू बोलै भागलपुर सें, बदली के सवाद।
बाबा के शरणों में ऐलै, लै लें आशीर्वाद॥३८॥
भागलपुर सें पटना जैबै, ऐलो छै कुछ पत्र।
बाबा बोलै ‘भागलपुर से, जाना मत अन्यत्र॥३९॥
बदली नहीं हुई है जानों, कहना मेरा मान।‘
कार्यालय में आबी, गेलै कागज ऊपर ध्यान॥४०॥
रहै स्थगित बदली के लिखलों, पढ़थे मन खुशहाल।
ढेर दिनाँ पर फेनूँ ऐलै, बदली के भूचाल॥४१॥
परम हंस मेँहीँ बाबा कें, बदली केरों बात।
जिलाधिकारी जाय सुनाबै, दिखाबै कागजात॥४२॥
‘जाओ, उन्नति करके आओ,’ बाबा के आसीस।
ऐलै बनी कमिश्नर फेनूँ, जाय झूकाबै शीश॥४३॥
पुन: कमिश्नर भागलपुर के, पैदल कुप्पा घाट।
कोनों आयोजन आश्रम के, जोहै इनको बात॥४४॥
महाराज जी नरतन धारी, नरलीला के हेतु।
जीव-ब्रहम कें जोड़े वाला, बनलों छेलै सेतु॥४५॥
महा संत सेबी बाबा जे, रहै सदा नजदीक।
मेँहीँ बाबा के कामों से, उनखौ लागै दीक॥४६॥
रोग ग्रस्त उनका देखै छै, जौने करै इलाज।
सेवक सब परेशान लगै छै, बदलै सब्भे साज॥४७॥
नंदलाल मोदी पटना के, ठीक करलकै रोग।
दुर्बलता के कारण छूटै, दिनचर्या के योग॥४८॥
डाक्टर रामवदन जी आबै, हर सतरह तारीख।
सुई दै के क्रम में बैठे, लै बाबा सें सीख॥४९॥
बाबा कुछ कमजोर लगै छै, रोग मुक्ति के बाद।
नरलीला के सूत्रधार भे, देखै दवा मुराद॥५०॥
बैठकखाना में बैठी कें, बाबा करै विचार।
‘सदा दवाई के चक्कर में, लगा हुआ संसार’॥५१॥
बाबा बोलै सेवकगण सें, ‘अगला तिथि को आय।
सुई डाक्टर दे पायेंगे, संभव नहीं लखाय’॥५२॥
कहै संत सेवी बाबा जब, पक्का उनको बात।
केना फनूँ भूलैतै गुरुवर, डाक्टर छै विख्यात॥५३॥
बाबा बोलै देख सकोगे, आ जाने दो वक्त।
ई बातों कें भूली सब्भे, कामों में अनुरक्त॥५४॥
ईश्वर के लीला ही बोलों, या बाबा के बात।
सतरह कें डाक्टर नैंऐलै, आसे बजलै सात॥५५॥
अगला दिन आगी कें डाक्टर, प्रकट करलकै खेद।
बाबा नैंबतलैए छेलै, खोली कें कुछ भेद॥५६॥
डाक्टर बोलै ‘अंतर्यामी बाबा से कुछ बात।
छिपी रहेगी बड़ा असंभव, हुआ मगर आघात॥५७॥
माफ करेंगे बाबा निश्चय, ऐसा है अनुमान।
मेरी लाचारी जो कुछ है, करना व्यर्थ बखान॥५८॥
प्रश्न स्वास्थ्य के महाराज का, झूठा का आरोप।
उलाहना भी एक आप का, खुशी हुई सब लोप॥५९॥
कहै संत सेवी बाबा भी, चिंता के नैंबात।
बाबत स्वयं बतैनें छेलै, बैठी कें इक रात॥६०॥
बाबा अंतर्यामी छेकै, नैंतनियों संदेह।
हमरा ऊपर बाबा केरों, पूरा-पूरा स्नेह॥६१॥
सुई लेना बंद करलकै, बाबा ऐसै ठीक।
बाबा केरों अनंत महिमा, जानैंजे नजदीक॥६२॥
बाबा के मस्तिष्क कहावै, बैठे-सूतै पास।
महासंत सेवी बाबा पर, बाबा कें भी आश॥६३॥
दूर नजर सें जाबे नैंदै, बोलै वचन विचार।
क्यों दिन-रात दवा के चक्कर में उलझा संसार॥६४॥
ध्यान-साधना, तप-योगों में, मानव का उपचार।
स्वस्थ शरीर अगर रखना है, समुचित कर आहार॥६५॥
कहै संत सेवी बाबा तब, हम्मे सब अनजान।
लगलै छै लालसा हमेशा, पाबौ बढ़िया ज्ञान॥६६॥
अंतर्मुख अपना कें करना, छठी भक्ति कहलाय।
भागता के चाल निराली छै, कबीर साहब गाय॥६७॥
उपदेशों में मेँहीं बाबा, कहने छै जे बात।
ऊ सब नैंजीवन मेँ भूलों, याद करो दिन-रात॥६८॥
ईश्वर की ओर चला जाना, ईश्वर की है भक्ति।
ईश्वर का यश गान करोगे, तभी मिलेगी मिकती॥६९॥
इंद्रिय-ज्ञानॉन की खोजों मेँ, नहीं कभी कल्याण।
बुद्धि नहीं कोई इस जग मेँ, जो उसको ले जान॥७०॥
इंद्रियों के ज्ञान मेँ संभव, नहीं प्रत्यक्ष ज्ञान।
जीवात्मा करती अपने से, अपने को पहचान॥७१॥
आत्म ज्ञान से ईश्वर दर्शन, ईश्वर की पहचान।
ज्ञान बिना है योग अधूरा, योग बिना क्या ज्ञान॥७२॥
ज्ञान-योग सत्संग वचन मेँ, साधन संभव मान।
वेद वाक्य या संत वाक्य मे, तालमेल भी जान॥७३॥
सतसंगति संसृति कर अंता, उक्ति बड़ी अनमोल।
ध्यान-योग सर्वौत्तम ही हैम कहती गीता खोल॥७४॥
साधु संग मेँ मन से बैठो, समझो कथा प्रसंग।
बाहय इंद्रियाँ धोखा देंगी, और करेंगी तंग॥७५॥
युद्ध अनिवार्य हिंसा समझो, अगर बचाना देश।
हिंसा जो व्यवसायिक होती, वह देती है कलेश॥७६॥
जननी जन्म भूमि की रक्षा, करना प्राण गमाय।
बाबा गेलै चोला बदली, सब्भे कें समझाय॥७७॥
बाबा के उपदेश उतारै, जीवन मेँ जे कोय ।
रोग-शोक-दुख-तकलीफ़ों से, बड़ी उबारा होय॥७८॥
नानक, सूर, कबीर हमेशा, गैने छै जे गीत।
वै मे मिश्री घोल मिलै छै, वै में छै नवनीत॥७९॥
तुलसी बाबा, देवी बाबा, मेँहीं बाबा रोज।
जीवों के कल्याणों लेली, करनें छै नित खोज॥८०॥
मेँहीं बाबा पोछै, दीन-दुखी के लोर।
फैलैनें छै बाबा चहूँदिश, धरती पर इंजोर॥८१॥
‘संत सहहि दुख परहित लागि,’ करने छै चरितार्थ।
बाबा के कोनो कामों में, कहीं जरा नैंस्वार्थ॥८२॥
जात-पात या कर्मकांड के, करतें रहै विरोध।
साम्प्रदायिक कट्टरता केरो, बनैंसदा अवरोध॥८३॥
सर्वाधार वहें सर्वेश्वर, आदि कहीं नैंअंत।
सदा, अजन्मा, अलख-अगोचर, मानैंछै सब संत॥८४॥
हर जीवों में वहें समैलो, भेद-भाव बेकार।
मेँहीं बाबा जीवन केरो, सच्चा छेलै सार॥८५॥