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सर्ग - 21 / महर्षि मेँहीँ / हीरा प्रसाद ‘हरेन्द्र’

सदा बहत्तर ईस्वी तक तें, सत्संगों में ध्यान।
पर उपकारों कें अपनाबै, करै सदा कल्याण॥१॥

सड़सठ में ही जखनी देखै, वृद्धावस्था आय।
बत्तीस शिष्य कें दीक्षा दै, अधिकारी समझाय॥२॥

एक लाख भक्तों कें बाबा, भजन-भेद बतलाय।
पंचानवे वर्ष तक हरदम, करतें रहै भलाय॥३॥

अस्सी ईस्वी सें दूर कहीं, जाना दै छै छोड़।
कुप्पाघाटों सें ही खाली, नाता राखै जोड़॥४॥

सौ बरसों के आयु हमेशा, करै रहै लाचार।
महाराज जी अविचल धामों लेली छै तैयार॥५॥

जेठ महीना शुल्क पाक्स जब, ग्यारहवीं रविवार।
आठ-जून सन रहै छियासी, बाबा देह बुखार॥६॥

‘सुकिरत कर ले, नाम सुमरले,’ बाबा गावै गीत।
मृत्युदेव के विकट घड़ी में, संभव लागै जीत॥७॥

डाक्टर राजहंस के साथे, लक्ष्मी कांत सहाय।
बाबा कें कुछ दिन राखै के, सोचे बैठ उपाय॥८॥

नब्ज टटौलै, नाड़ी की गति, बिल्कुल छेलै मंद।
तभी संत सेवी बाबा भी, देखै धड़कन बंद॥९॥

खबर सुनी डाक्टर जब आबै, होलै बड़ा अधीर।
जाँच करी कें तत्क्षण बोलै, अबा निष्प्राण शरीर॥१०॥

रात बजै दस लगभग जखनी, बाबा तें निस्तेज।
पर सब्भै कें झलकै छेलै, मुख मण्डल पर तेज॥११॥

पार्थिव शरीर त्यागी गेलै, बाबा तें सुरलोक।
हाहाकार मचे आश्रम में, छैलै पूरा शोक॥१२॥

एक सौ एक बरस बितावै, दिन भी इकतालीस।
लाखों के माथा पर हरदम, बाबा के आसीस॥१३॥

पंच भौतिक शरीर त्याग कर, शब्दातीत अनाम।
पद में होलै लीन जहां सें, लौटै के नैंकाम॥१४॥

मगर ‘मोक्ष मैं नहीं चाहता’, बाबा करै ब्यान।
‘लौट शीघ्र मैं आ जाऊँगा, करने को कल्याण॥१५॥

सच्चा दिल सें कभी पुकारों, करों अगर तों याद।
बाबा आबी दर्शन देथों, सुनथों सब फरियाद॥१६॥

भौतिक शरीर त्याग करै के, गेलै खबर विदेश।
अंतिम दर्शन लेली उमड़े, पूरा भारत देश॥१७॥

दस जूनों कें सात बजे ही, महासभा बोलाय।
शोक प्रस्ताव पारित होलै, विहवल जन समुदाय॥१८॥

अग्नि संस्कार अहिनों पावन, करै हेतु शुभ काम।
पूज्य संत सेवी बाबा के, आदर सें ले नाम॥१९॥

तुरत विमान बनैंलकड़ी के, बाबा कें लेताय।
रजनी गंधा, श्वेत कमाल सें, खूब विमान सजाय॥२०॥

पटना कलकत्ता सें लकड़ी, चन्दन डेरों आय।
सतसंगी सब बैठी-बैठी, बाबा के गुण गाय॥२१॥

आश्रम स्थित ऊंचा टीला पर, चिता बनैंबेजोड़।
भीड़ उमड़लों छूवें चाहें, बाबा केरों गोद॥२२॥

समय पाँच पच्चीस बतावै, नजर घड़ी पर जाय।
पूज्य संत सेवी बाबा जब, संस्कारों ले आय॥२३॥

घी में सनलों चन्दन लकड़ी पकड़े जल्दी आग।
‘मेँहीँ बाबा अमर रहें’ के, निकलै सुंदर राग॥२४॥

बादल के टुकड़ा कुछ आबी, ऊपर में मड़राय।
धीरें-धीरें अंधेरा भी, अपनों असर दिखाय॥२५॥

पच्चीस कलश में रखी कें, तुरत चीता के भस्म।
गंगा जल में करी प्रवाहित, संत निभावै रश्म॥२६॥

कलश एक ठो समाधि लेली, आश्रम लानैंसंत।
पार्थिव शरीर साथ चिता के, मिललै जाय अनंत॥२७॥

महाराज के कमरा बीचे, अस्थि कलश के रूप।
स्थापित तखनी करलों गेलै, लागै परम अनूप॥२८॥

संस्कार स्थान समाधि मंदिर, के होलै निर्माण।
साठ फीट जकरों ऊँचाई, वै में दया निर्धान॥२९॥

संख्या बैरागी शिष्यों के, तीनों सौ सें पार।
संतमत-सत्संग के जौने, करै सदा परचार॥३०॥

बिहार-झारखंड के सब्भे, शहर रहै या ग्राम।
मंदिर भव्य सुशोभित सगरे, प्रवचन सुवहों-शाम॥३१॥

भारत के कोना-कोना में, शिष्य सागर अनुमान।
विदेश अमरीका, इंग्लैण्डों, रूस, पाक, जापान॥३२॥

मुख्य साधन स्थल स्वास्थ्यबर्द्धक, आश्रम बिल्कुल शांत।
मानियारपुर आरू धरहरा, मनिहारी एकांत॥३३॥

ई सब्भे जगघों पर बाबा, बारी-बारी जाय।
जीवन के बहुमूल्य समय कें, कुछ-कुछ वहीं बिताय॥३४॥

बाबा छेलै परम दार्शनिक, सब गुण के आगार।
दार्शनिक मतों के रूपों में, इनको मत स्वीकार॥३५॥

ब्रहम-जीव में अंतर समझे, व्यापक रहै विचार।
चेतन शक्ति सृष्टि के भीतर, करै हिनी स्वीकार॥३६॥

ब्रहम-ब्रह्माण्ड समझै लेली, स्थापित मत छै ढेर।
दर्शन जकरा बोलें पारोन सब कें नैंछै टैर॥३७॥

कत्तें छै दर्शन ई कहना, बड़ा कठिन छै काम।
आस्तिक-नास्तिक भेड़ों साथे, षड़ दर्शन के नाम॥३८॥

व्यक्ति ब्रह्म-जीव, जगत-माया, पर सोचे हर वक्त।
वहें दार्शनिक होते जे छै, दर्शन में आश्क्त॥३९॥

चारों विषय बड़ा छै व्यापक, यै में सारा ज्ञान।
सदा समैलों पर सब्भै, नैंहोतै में पहचान॥४०॥

दर्शन के परिभाषा ढेरी, देने छै जे संत।
मेँहीँ बाबा हरदम खोजै, नैंछै जकरों अन्त॥४१॥

गुरु के भक्ति, साधु के सेवा, करै हमेशा ध्यान।
परम हंस मेँहीँ बाबा कें, दर्शन के पहचान॥४२॥

सुकरातों के परिभाषा के, करै सदा सम्मान।
ज्ञान चादर, ज्ञान बिछोना, ज्ञाने सब परिधान॥४३॥

संतमतों के परंपरा में, बाबा केरों योग।
जाति-पाति के भेद मिटाबै, जे समाज के रोग॥४४॥

बाल-काल में दुबला-पतला, बाबा केरों शक्ल।
मेँहीँ नाम रखै में सब्भे, बड़ी लगावै अक्ल॥४५॥

बाबा नाम करलकै सार्थक, मेँहीँ महीन काम।
देश-विदेशो में फैलाबै, भागलपुर के नाम॥४६॥

यूकिको फ्यूजिता देखै छै, सपना में जे रूप।
भागलपुर कुप्पाघाटों में, देखै रूप अनूप॥४७॥

लाल सखे के अनुपम घटना, बाबा जहाँ सुनाय।
कैसे जानैंकुप्पाघाटै, सोची मन चकराय॥४८॥

कलकत्ता सें चलें जलंधर, दुर्घटना के ख्याल।
सेवक नैंचित छै तइयो, बचलै बाए-बाल॥४९॥

दंड दिलाबे दुष्टों कें जब, सतसंगी के राय।
आफू जीवन में चेतै लें, बाबा दै समझाय॥५०॥

अश्वत्थामा उद्धार करै, बाबा अपनाँ हाथ।
द्वापर सें कलियुग तक ऐलै, बड़ा दुखों के साथ॥५१॥

पाँच पुत्र पाण्डव के मारै, अश्वत्थामा जाय।
भीम पकड़नें घीची लानै, जहां रहै यदुराय॥५२॥

माँफ करै द्रौपदी सही में, कृष्ण मगर दै श्राप।
द्रौपदी केरों अनुशरण में, बाबा के परिताप॥५३॥

प्रमोद दासें चरण दबावै, पर भोजन पर ध्या।
‘जाओ तुम भोजन कर आओ’ बाबा करै बयान॥५४॥

बाबा कैसे जानी गेलै, हमरों मन के बात।
प्रमोद दास रहै चिंता में, सोची कें दिन-रात॥५५॥

सौतेला भाई किंकर के, बेटा बिनोद लाल।
बाबा जब परलोक सिधारै, उनका एक मलाल॥५६॥

नादानुसंधान के दीक्षा, लेना छेलै शेष।
मेँहीँ बाबा इनको छेलै, ब्रहमा, बिष्णु, महेश॥५७॥

गुरु भाई सें दीक्षा लेना, नैंमानैंउपयुक्त।
दीक्षा बिना नैंसंभव होना, भव बंधन सें मुक्त॥५८॥

एक दिनाँ सपना में आबी, दै दीक्षा के दान।
स्वप्न भंग होला पर बाबा, होलै अंतर्ध्यान॥५९॥

सपना में देलों दीक्षा कें, सम्राट दीक्षा बोल।
महापुरुष सब समझैनें छै, जे सचमुच अनमोल॥६०॥

एक बालिका रिंकी छेली, माता केरो साथ।
संध्या-बाती लेली घूमै, दीपक लेनें हाथ॥६१॥

दीपक सेन बच्ची के देहें, लागी गेलै आग।
पर रिंकी के छेलै बड्डी, बाबा सेन भी लाग॥६२॥

कानैंचिल्लावै बच्ची, देखों कथा विचित्र।
खाढ़ी होलै जहां टांगलोन, बाबा केरो चित्र॥६३॥

अर्ज सुनलकै मेँहीँ बाबा, टललै सब्भे काल।
कपड़ा छोड़ी बच्ची केरों, जले एक नैंबाल॥६४॥

एगो पगली बाबा आगू, तेकै जखनी माठ।
बाबा दुखड़ा तुरत सुनलकै, बड़ी धैर्य के साथ॥६५॥

क्षण में पगली चंगा भेली, सब दुख होलै दूर।
बाबा के ई कथा-कहानी, संतन में मशहूर॥६६॥

झूलन देवी बहिन दाय जब, होली मरनासन्।
बाबा केन नित याद करै बस, त्यागी डेलक अन्न॥६७॥

गंगा जल झट पान कराबै, जाना चाहै दूर।
परिवारों के लोग करलकै, ठहरै पर मजबूर॥६८॥

बाबा मन के बात बताबै, करला पर प्रस्थान।
तभिये छोड़ी जैतै जग सें, बहिन दाय के प्राण॥६९॥

बाबा जैसें घर सें निकलै, बहिन दाय के प्राण।
निकली गेलै देहों सें झट, देह रहै बेजान॥७०॥

मेँहीँ बाबा के आगू में, नैंटिकलै यमराज।
आँख पसारे देखी लै छै, पूरा गाँव समाज॥७१॥

मेँहीँ बाबा केरों महिमा, देखों बड़ा विचित्र।
देश-विदेशो में छिड़कावे, सद्भावों के इत्र॥७२॥

सब संतों के एक्के मत छै, जानी पकडे राह।
ई राहों पर सब लोंगोन केन, लानैंकेरों चाह॥७३॥

झूठ-नशा, चोरी-हिंसा या व्यभिचारों सें दूर।
जे रहतै उनका जीवन,एउन, सुख-सुविधा भरपूर॥७४॥

पंच पाप छेकै दुनिया में, मानव के सब रोग।
मिकती मिलै रोगों सें जब, कारों ध्यान-तप-योग॥७५॥

आवागमन जीव के होना, दुक्खों के आधार।
ईश्वर भक्ति आराधना बिन, नैंककरों निस्तार॥७६॥

छुआछूत सीमा रेखा केन, करने छेलै पार।
वही घड़ी में होलो छेलै, बाबा के अवतार॥७७॥

नैंविचलित तनियों टा होलै, सहतें रहलै कष्ट,
करै कुचेष्टा, भारी निंदा, जे छेलै पथ भ्रष्ट॥७८॥

गौतम बुद्धौ केरों हालत, जे छेलै ऊ काल।
मेँहीँ बाबा भोगै छेलै, ऊ सब्भे तत्काल॥७९॥
जीवन धन्य बनाबै लेली, जे उंकोन श्योग।
कृतज्ञता दर्शाबै लेली, कारों ध्यान-तप-योग॥८०॥

जौने मोल समय के जानै, ऊ होलै ‘अनमोल’।
मोल समय के जे नैंजानैं, ऊ होलै ‘अन’ मोल॥८१॥

वक्त गुजरतें रहथो हरदम, पकड़ो कससी भाय।
वक्त गुजरलों वापस कहियों, लौटी केन नैन आय॥८२॥

हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, यहाँ नै, बाबा के उपदेश।
यहें भेद-भावों के चलते, जीवन में छों कलेश॥८३॥

संस्कृति आरू मूल्य हमेशा, आवश्यक दू तत्व।
जीवन जीयै के लेली छै, जकरों बड़ा महत्व॥८४॥

श्रद्धा, करूणा, समता, मैत्री, ई छेकै, मूल।
भक्ति-प्रेम सब यहें असालका, पूजा केरों फूल॥८५॥

जूलमों के चक्की तें चलथो, थोड़े दिन लें जान।
रावण-कांशों रङ् पापी के, हटलोन छै अभियान॥८६॥

रामायण के बाते सब्भे, भूली गेलै लोग।
स्वार्थ में डूबलों छै पूरा, बड़ी भयानक रोग॥८७॥

ईख निचोडों रस निकलै छै, सरसों फेरों तेल।
संत-मतों केन पूरा मत्थों, नैंलगथों बेमेल॥८८॥

सूरत आवरण पार करे केन, सार शब्द में लीन।
रहै उन्मुखी रहनी आरू, समाधी में तल्लीन॥८९॥
सच्चा सदगुरु वहें कहावै, जिनको दर्शन मात्र।
सर्वेश्वर सेन मिलना समझों, बतलाबै छै शास्त्र॥९०॥

शक्ति उपस्थिति सदगुरु केरों, कतनों मों रामाय।
परिमित रहतै सदा साधना, बीनय कारों मन लाय॥९१॥

गुरुगुण अमित अमित को जाना, बाबा कहै पुकार।
सक्षेपहि सब करै बखाना, नैंजानैंबिस्तार॥९२॥

सब समुद्र केन थाह लगाना, पानी भी तौलाय।
गंगातट के बालू सबभे, गिनती करलों जाय॥९३॥

सब ग्रह नक्षत्रों के साथे, मुट्ठी में भी आय।
पर सदगुरु गुण केरों वर्णन, इतिश्री कहाँ लखाय॥९४॥

विद्या वरदा सरस्वती रङ्, वक्ता ज्यों अनमोल।
गणपति लेखन करता बैठे, आँखों दर्जन खोल॥९५॥

लेकिन लिखना संभव नैंछै, गुरु महिमा सम्पूर्ण।
वक्ता, लेखांकर्ता थकते, रहतै सदा अपूर्ण॥९६॥

चतुर्मुख ब्रह्मा, पंचमुख शिव, षडानन कीर्तिकेय।
गुरुगुण गाना अपनों-अपनों, अगर बनाबै ध्येय॥९७॥

कृति गावें सहस्र मुख वाला, साथे मिलतै शेष।
महिमाधारी केरों महिमा, नैंहोतै नि:sहेश॥९८॥

धर्मशास्त्र के पन्ना-पन्ना, में गुरु के यशगान।
अनंत उपकारी गुरु गाथा, के करतै अवसान॥९९॥