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सर्ग - 7 / महर्षि मेँहीँ / हीरा प्रसाद ‘हरेन्द्र’

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अगर इरादा राखों पका, मिलतै झट भगवान।
गुरू करै में जे घबड़ाबें, नैं होतै इंसान॥१॥

गुरु रामानंदों आश्रम, सुख-समृद्धि के वास।
मेँहीँ दास सम्हारी राखै, कागज-पत्तर खास॥२॥

हिनियें आश्रम केरों सबभे, लानै-भेजै डाक।
डाकघरों में दू सत्संगी, जकरों पूरा धाक॥३॥

रामदास जी रोजे भेटै, कागज लेनें हाथ।
रहै पोस्टमास्टर हुनिये, अध्यापक के साथ॥४॥

धीरज लाल गुप्त जी छेलै, रामदास के मित्र।
दोनों केरों जोड़ी देखै सब्भै बड़ा विचित्र॥५॥

सबपोस्टमास्टर हुनियो रहै, काढ़ा गोला डाक।
विद्यालय के अध्यापक भी, रहभें सुनी अवाक॥६॥

दोनों आध्यात्मिक विचार के, दोनों पूरा सन्त।
सत्संगों में देखै जौने, दोनों लगै महन्त॥७॥

परम सन्त देवी साहब के, दोनों छेलै भक्त।
दोनों के धमनी में लागै, एकके छेलै रक्त॥८॥

छल प्रपंच सें दूर हमेशा, दोनों बिल्कुल शान्त।
सत्संगों के चर्चा छेडे, जहाँ मिलै एकान्त॥९॥

धीरज लाल गुप्त सें पूछै, मेँहीँ बाबा बात।
कहों संतमत छेकै की जे, चर्चा छै दिन-रात॥१०॥

धीरज लाल गुप्त सें पूछै, मेँहीँ कें समझाय।
लागै छै जल्दी ही हमरों, बनभै तों गुरुभाय॥११॥

संसारों के सब्भे संतों के जे रहै विचार।
वहें ‘संतमत छेकै जानों, मानैं छै संसार॥१२॥

आबों सत्संगों में आबो, पूरा होथों ज्ञान।
सत्संगे ही दूर करै छै, लोगों के अज्ञान॥१३॥

धीरज लाल गुप्त के मानी, मेँहीँ बाबा बात।
सत्संगों में मोंन रमाबै, सुबह-शाम, दिन-रात॥१४॥

सत्संगों में बैठी पीयै, संतमतों के घूँट।
तब देवी साहब जी के प्रति, श्रद्धा हुवै अटूट॥१५॥

गुप्ता जी सें व्यक्त करलकै, दर्शन केरों आस।
गुपरा जी झट पत्र लिखलकै, देवी साहब पास॥१६॥

हिन्नें मेँहीँ बाबा छेलै, दर्शन लें बेताब ।
हुन्ने देवी बाबा साहब, घूमै रहै पंजाब॥१७॥

गुप्ता जी के पत्र लिखलका, रामदास जी पाय।
देवी बाबा आगू आबी, बाँचे लगलै भाय॥१८॥

वै पत्रों में मेँहीँ बाबा केरो अंकित चाह बात।
सदगुरु बाबा देवी दर्शन केरो खोजै राह॥१९॥

चिट्ठी पर तें देबी बाबा, रहै लगैनें ध्यान।
पर उनका भावों के कुछछू, नई लगलै अनुमान॥२०॥

मगर दोसरे दिन घबडेलो, बाबा बोलै बात।
मेँहीँ लाल कहाँ छै जकरों, चिंता होलै रात॥२१॥

फेनूँ देवी बाबा बोलै, विजया दशमी रोज।
जैबै जब भागलपुर करबै, मेँहीँ केरों खोज॥२२॥

रामदास चिट्ठी भेजी कें, धीरज कें समझाय।
मेँहीँ बाबा देखी चिट्ठी, हर्खित होलै भाय॥२३॥

पर मेँहीँ केरों विहवलता, दिन-दिन बढ़ले जाय।
धीरज लाल गुप्त कें अपनों विहवलता बतलाय॥२४॥

राजेन्द्रनाथ रहै निवासी, भागलपुर के खास।
धीरज लालगुप्त जी लानै, मेँहीँ उनका पास॥२५॥

मेँहीँ बाबा भी उनका सें, भजन-भेद कर प्राप्त।
मिरजानों में बैठी रहलै, भजन-भेद में आप्त॥२६॥

आबी रहै धरहरा कुछ दिन, पूज्य पिता के ग्राम।
तब तक विजया दशमी ऐलै, लें कें खुशी तमाम॥२७॥

ठीक समय पर मेँहीँ बाबा, ऐलै मायागंज।
देखै देवी बाबा केरों, मुख-मण्डल नव कंज॥२८॥

सदगुरु देवी बाबा केरों, चरण गहै तत्काल।
लालायित छेलै जे होलै, दर्शन करी निहाल॥२९॥

दीक्षा गुरु राजेन्द्र नाथ जी, लानैं मेँहीँ साथ।
देवी बाबा के हाथों में, सोंपी दैछै हाथ। ३०॥

यक्षलोक सें रामचन्द्र कें, जैसें विश्वामित्र।
वैसे देवी बाबा देखै, वर्णन बड़ा विचित्र॥३१॥

मेँहीँ बाबा जन्ने-तन्ने, घूमै रहै अनाथ।
देवी बाबा गही कें, होलै आज सनाथ॥३२॥