सर्दियों में पहाड़-2 / ओमप्रकाश सारस्वत

सर्दियों में
पराये हो जाते हैं पहाड़;
गर्मियों में
लाख अभिशंसित भी
शरत् में अनचाहे हो जाते हैं पहाड़ ।

यहाँ बर्फ के दिनों में,
भुतही रास्तों-से भटकते हैं,दिन
मानसगंध में
ज़िंदगी, हातो के संदर्भ में जीती है
कुहासे में कंदील की तरह।

यहाँ महीनों तक दियार
हवाओं के आतंक से लड़ते हैं,
यहाँ चीड़ और कैल भी
ठंड में, पत्ती-पत्ती मरते हैं;
नन्हें पादपों को तो बस
उनका हौसला ही बचाता है
अन्यथा दुर्बल जिजीविषा को बर्फ,जड़ों तक निगल जाता है।

सारी धूप को
एक चिड़िया तक
चुग सकती है,
किसी भी वक्त शहर में
सांझ उग सकती है।
यूँ कहने को पहाड़
यह होते हैं, वोह् होते हैं;
पर शीत के काल में तो
मरी हुई 'गोह' होते हैं।

इस पृष्ठ को बेहतर बनाने में मदद करें!

Keep track of this page and all changes to it.