भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सर्पिणी राहें / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक-दूसरे को
काटती हुई सर्पिणी राहें
ढकेलती हुई
ले आयीं-
महानगर से बाहर,
खुली हवा
मन्त्र-फूँकों से
उतारती है
रग-रग में फैला हुआ-
जहर।