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सर्वनियन्ता सर्वेश्वर मैं / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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सर्वनियन्ता सर्वेश्वर मैं, सब गुण-रहित सर्व-गुण-धाम।
सर्वभूतमय, सर्वाश्रय मैं सर्वातीत, सर्वविश्राम॥
सर्वमूल मैं, पूर्ण तृप्त नित, आप्तकाम हूँ, नित निष्काम।
नित्य निरीह, पूर्ण नित सुखसे, निज महिमा-स्थित, आत्माराम॥
नहीं अभाव कहीं कुछ भी है, नहीं कदापि चाह-परवाह।
नहीं किसी सुखकी प्रसन्नता, नहीं दुःखकी आह-कराह॥
पर राधे तेरा अति पावन, मधुर प्रेमरस-सिन्धु अपार।
आकर्षित नित करता रहता, प्रति तरंगमें मुझे पुकार॥
क्षुधा-तृषा जग उठी विलक्षण, नित्यतृप्त मुझमें सुमहान।
आतुर मैं तटपर आ करने लगा मधुर अवगाहन-पान॥
पर न कदापि तृप्त हो पाता, बढ़ता नया-नया अभिलाष।
बढ़ता लोभ हरेक लाभमें, बढ़ती नित नव क्षुधा-पिपास॥
अनुपम अतुल त्याग-परिपूरित तेरा यह रस-निधि अभिराम।
मेरे लिये हो गया अब तो यही जीवनाधार ललाम॥
इस रस-सिंधु मधुरमें ही मैं रहा चाहता नित्य निमग्र।
राधे! रहूँ सदा ही तेरे दिव्य प्रेममें मैं संलग्र॥