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सवाद-ए-शाम से ता-सुब्ह-ए-बे-किनार गई / शाहिदा हसन
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सवाद-ए-शाम से ता-सुब्ह-ए-बे-किनार गई
तिरे लिए तो मैं हर बार हार हार गई
कहाँ के ख़्वाब कि आँखों से तेरे लम्स के बाद
हज़ार रात गई और बे-शुमार गई
मैं मिस्ल-ए-मौसम-ए-ग़म तेरे जिस्म ओ जाँ में रही
कि ख़ुद बिखर गई लेकिन तुझे निखार गई
कमाल-ए-कम-निगाही है ये ए‘तिबार तिरा
वही निगाह बहुत थी जो दिल के पार गई
अजब सा सिलसिला-ए-ना-रसाई साथ रहा
मैं साथ रह के भी अक्सर उसे पुकार गई
ख़बर नहीं कि ये पूछूँ तो किसे पूछूँ मैं
वहाँ तलक मैं गई हूँ के रहगुज़ार गई