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सवाल-जवाब / मनीष मूंदड़ा

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कल रात
ख़्वाबों के गलियारे में
हम तुम फिर मिले

कई सवाल उठे
कुछ पुराने
कुछ नए
जवाबों के सिलसिलों के बीच
तुमने मुझसे कहा, अब शायद
तुम्हारा यूँ मेरे ख़्वाबों में आ पाना मुश्किल होगा
अब मुश्किल होगा तुम्हारा
मेरे उन सवालों का जवाब दे पाना
मेरे सारे सवालों का जवाब
अब मुझे ख़ुद ढूँढना होगा
ख़्वाबों को छोड़
मुझे हकीक़त से सहमत होना होगा

सुबह से मन मायूस हैं, अपनी इस मुलाक़ात से
तुम्हारा यूँ अचानक, मेरी ख़्वाबों की दुनिया भी छोड़ जाने से

मैं सोचता था
तुम्हारी सारी मुश्किलें
एक एक दलीलें, तुम्हारी अनकही मजबूरियाँ
वक्त के साथ, सब, धूमिल हो जायेंगी
या फिर
हक़ीक़त की परतें
मेरे सहमें मन को सहारा दे देंगी
जवाबों की इच्छाएँ
कल्पनाओं के जंगल में
वक्त के बहाव में
कहीं मुझसे बिछड़ जायेंगी

इतना क्यूँ मुश्किल है यह सब
क्यूँ आज भी मैं ख़ुद को वहीं खड़ा पाता हूँ, उन्ही रास्तों पर?
क्यूँ बहता चला गया ये वक्त बिना असर?
किससे पूछूँ अब मैं, मेरे ये नए सवाल?