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सविता / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

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सविता, शायद हमें मनुष्य जन्म मिला है
किसी बसन्त की हो रात,
भूमध्य सागर को घेरे
जो जातियों थी उनके बीच
उन्हीं के साथ
सिन्धु के अँधेरे रास्तों पर किया है गुंजन
वहाँ दबी-दबी रोशनी थी, उस रक्त-लोहित रोशनी में
मुक्ता के शिकारी थे
और थी रेशमी दूध की तरह गोरी-गोरी नारी।
अनन्त धूप से शाश्वत अन्धकार
की ओर सबके सब अचानक शाम बीतने पर
कहीं नीरव ख़ामोशी में चले जाते थे।
चारों ओर की नींद सप्तऋषि नक्षत्र की छाया में
मध्य युग का अवसान हो गया-
और इस अवसान को बनाये रखने के लिए
योरप और यूनान बन गये नये सभ्य ईसाई।
फिर अतीत से उठकर मैं तुम और वे आगे चले-
सिन्धु की रात के जल को भी याद होगा
कि नई दुनिया की तरफ़ आधे आगे चलते थे,
कैसा तो अनन्योपाय होने के आह्वान पर
हम लोग आकुल हो उठकर
मनुष्य को मनुष्य की व्यक्तिगत उपलब्धि पर पुरस्कृतकिया जायेगा
आदि-आदि सहमति के बावजूद
पृथ्वी की मृत सभ्यता में
जाते ही थे सागर के स्निग्ध कलरव में।

अब एक दूसरी रोशनी जलती है पृथ्वी पर
कैसी तो एक अपव्ययी अक्लान्त आग।
और न जाने तुम्हारे घने काले केशों में
कब का समुद्र का लवण,
तुम्हारे मुख की रेखा में आज भी कितने मृत
ईसाई पादरियों के चेहरे
दिखाई देते हैं
सुबह के उगते सूर्य की तरह
बहुत क़रीब, पर बहुत दूर।