सहधर्मिणी के साथ गंगोत्तरी की ओर / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
गिरिराज हिमालय मानदण्ड-सा पृथिवी के,
करता गर्वोन्नत मुद्रा में विमुग्ध-विस्मित।
कितना महिमामय उसके सूत्रों का वितान?
प्रतिमान स्वर्ग के लिए बना जो मूर्त्तिमान।
रंगों से रंजित अम्बर-ताल में अन्तरहित-
हो रहा प्रभा का मानसरोवर आन्दोलित।
कर रूप-चित्र के अन्तरंग का उन्मीलन।
खुल रहा चित्रपट चिद्विद्या का-
आनन्दों के भी ऊपर।
जिस ज्योतिराशि की एक किरण के दर्शन से,
हो जाता मर्त्य अमर्त्य अनश्वर अमृतरूप।
उड़ रहे दिशाओं के आनन पर तड़ितगर्भ,
पीकर सागर का खारा जल-
सुषमा से भरते अन्तस्तल में हर्ष-भँवर।
रविकिरणजाल के रंग-बिम्ब से उत्कीर्णित,
कर देते जो सम्पूर्ण दृश्य को उद्भासित।
कर सकता कौन तूलिका से उनका चित्रण?
परिवर्त्तित उनके अलंकरण का रेखांकन?
कर रही घटा अम्बरवितान को भस्मांकित,
करने के लिए भूतभावन का आराधन,
गोपन लीलाओं का अभिनय करने वाले,
रवि की किरणों में गुँथे हुए-
लाते किससे तीतरपंखी काले बादल
अन्तर में मधुर सुधारस भर?
फिर हो जाते विराट दिक्स्वस्तिक में विलीन!
उड़ रहा हवा के हिंडोले पर झोंकों में
तूफान गन्ध का उन्मादन।
लावण्य सरोवर क्षितिज छोर के ऊपर से,
है मुझे दूर से खींच रहा सम्मोहनमय।
भर रहा विभाकर नीलाम्बर के प्याले में,
स्वर्णिम किरणों की सुरा सोम में परणित कर।
है दहक रहा गंगा का धवलांशुक वितान,
किरणों की कनक शृंखलाओं से भ्राजमान।
उन्मुक्त गगनचुम्बी गिरिशृंगों के ऊपर,
कट जाते मेरी दृष्टि-परिधि के जड़ बन्धन।
बातें करते मुझसे, उत्कंठामय कानन,
उन्मादरागमय खिले हुए फूलों के वन।
बातें करते मुझसे, देकर प्रेमालिंगन,
पत्तों को हिला-हिला कर देवदारु, चन्दन,
रुचिरांगवर्ण अर्जुन, सागौन, चिनार, शाल।
जिनकी लोचनानन्ददायक बल्शाओं में,
युग-युग की घटनाएँ गुम्फित।
ऊपर-नीचे जीवन के कर्मचक्र गर्भित
बातें करते, मधु चखने से मद मुखर भ्रमर।
जलतल पर झपट रहे जलचर खग कलरव कर!
मेरे स्वागत के लिए खड़े भीषणकार
सीधे ऊपर की ओर उठे निर्जन पठार!
करते जिन पर नीलनिर्मल निर्झर प्रहार।
अँगड़ाई-सी ले रहे गगन में चिह्नहीन,
हिम से आच्छादित कितने भीमकाय भूधर!
गा रहे गान गत गौरव का निर्द्वन्द्व खडे़!
बर्फीले प्रस्तर-खण्ड खिसक कर गिरे पड़े!
पूरब से पश्चिम तक फैले-
विकराल भयंकर वनद्रुममण्डित नग-गहवर,
फुफकार छोड़ती आँधी में करते हर-हर।
कर जाता जिनका प्रेम हृदय-तल में प्रवेश!
धौंसा बजता या मधुसूदन का पा´्चजन्य-
भरता निनाद सर्वान्तक मेघों के समान।
चट्टानों को कर चूर-चूर आ रही तीर्थमाता गंगा,
स्वागत में उद्गम से समतल पर बलखाती।
दुर्दर्श लक्ष्य की ओर मोतियों की निचुड़ी धाराओं में
मधु पीकर मत्त हुई जैसे टटके फूलों के केसर का,
रानी समुद्र की तापों को हरती जाती।
खुलता पद-पद पर नया रूप-रवितुल्यरूप।
भ्राजिष्णु, महाप्रभ, विस्मयकर,
चित्रों से संकुल उत्तरतर।
ईर्ष्या-तृष्णा-ज्वाला से ऊपर बहुत दूर,
साम्राज्य शक्ति का कितना परम रहस्यभूत?
नीरवता की सीमा जेस कल्पनातीत,
केवल अद्वैत तरंगहीन सागर अपार।
विस्तार अभेद शक्ति का तेजोराशिरूप,
परिपूर्ण, परात्पर, चिद्विलासमय, गुणातीत।